Sunday, 7 July 2019

सबसे पवित्र मास होता है सावन, काशी विश्वनाथ के दर्शन करने से मिलता है मोक्ष



बोल बम के जयघोष के साथ सभी भक्त मां गंगा में स्नान करके जलकलश भरकर बाबा भोलेनाथ को अर्पण करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं. काशी के काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन करने के लिए तो भक्तों का जनसैलाब उमड़ता है.सावन का महीना आते ही शिवभक्त उनके दर्शन के लिए अपने- अपने घरों से निकल पड़ते हैं. ये महीना भगवान शिव को बहुत ही प्रिय होता है. 
सावन के महीने में भगवान शिव की विशेष पूजा की जाती है. इस महीने में शिव मंदिरों में भक्तों की काफी संख्या में भीड़ होती है. सावन के महीने में कांवड़ लेकर जाने और शिवलिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा होती है. शिवभक्त बोल बम का जयकारा लगाते हुए बाबा विश्वनाथ को जलाभिषेक और दुग्धाभिषेक करते हैं.

मुराद होती है पूरी- 

सावन महीने के चारों सोमवार को शिव मंदिरों में भक्तों की भीड़ उमड़ती है. पौराणिक कथाओं के अऩुसार इस महीने में जो शिव भक्त पूरे मनोयोग से उनकी पूजा-अर्चना करता है उसकी मुराद भगवान शिव और पार्वती अवश्य पूरी करते हैं. उत्तर भारत में खासकर सावन के महीने में भक्तों का उल्लास देखते ही बनता है. सड़क से लेकर मंदिर तक हर ओर भगवान शिव के भक्त ही नजर आते हैं.



 जानें काशी विश्वनाथ के बारे में-

काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है. यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है. काशी विश्‍वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्‍ट स्‍थान है. ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्‍नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है.

इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्‍वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्‍वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं. सन्त एकनाथ जी ने वारकरी सम्प्रदायका महान ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत लिखकर पूरा किया. महाशिवरात्रि की मध्य रात्रि में प्रमुख मंदिरों से भव्य शोभा यात्रा ढोल नगाड़े इत्यादि के साथ बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर तक जाती है.

काशी की महिमा-

हिन्दू धर्म में कहते हैं कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता. उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं. इस भूमि को आदि सृष्टि स्थली भी कहा गया है.

मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने का कामना से तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे संसार की रचना की.

शिव की होती है बेल पत्र से पूजा- इसी महीने में कांवड़ लेकर जाने और भगवान शिव पर जल चढ़ाने की मान्यता है. इस महीने में ज्यादातर हिंदू सात्विक भोजन करते हैं और भगवान की पूजा करते हैं. सावन के महीने में भगवान शिव की पूजा के दौरान बेल पत्र से पूजा-अर्चना की जाती है और जल चढ़ाया जाता है.

 सावन में बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने के शुभ दिन-

17 जुलाई, दिन- बुधवार श्रावण मास का प्रथम दिन.
22 जुलाई, प्रथम सोमवार
29 जुलाई, दूसरा सोमवार
5 अगस्त, तीसरा सोमवार
12 अगस्त, चौथा सोमवार
15 अगस्त, श्रावण मास का अंतिम दिन
सावन का महीना शिव जी के साथ-साथ माता पार्वती को भी समर्पित- इस महीना में जो भक्त सच्चे मन से शिव जी और माता पार्वती की पूजा करता है उसे अवश्य ही आशीर्वाद प्राप्त होता है. शादीशुदा महिलाएं अपने वैवाहिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए व्रत रखती हैं तो वहीं कुंवारी कन्या अच्छे वर के लिए शिव की पूजा अर्चना करती हैं.

मधुकर वाजपेयी / Madhukar Vajpayee

साभार - हि.स. 

Friday, 25 January 2019

पहली बार आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक लेंगे परेड में भाग

इस बार 70वें गणतन्त्र दिवस की परेड में आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक हिस्सा लेंगे. इस परेड को देखना अपने आप में गौरव का क्षण होगा. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जी की सेना के 4 सैनिक परेड में भाग लेने वाले हैं. जो सैनिक परेड में भाग लेगें उन सबकी उम्र 90 साल के पार है.


भारतीय सेना से साथ परेड में भाग लेने वाले सैनिकों में आईएनए के पूर्व सैनिक लालतीराम(98), हीरा सिंह(97), भागमल(95) और परमानंद(99) सेना की खुली जीप में परेड में शामिल होगें.


क्या है आज़ाद हिन्द फ़ौज का इतिहास-
  1. द्वितीय विश्व युद्ध  के दौरान सन 1942 में भारत को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतन्त्र कराने के लिए आजाद हिन्द फौज या इन्डियन नेशनल आर्मी (INA) सशस्त्र सेना का गठन किया गया. रास बिहारी बोस ने जापान की सहायता से  टोकियो में इस सेना को तैयार किया.
  2. बोस ने जापानियों और दक्षिण-पूर्वी एशिया से करीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन किया. एक वर्ष बाद  सुभाष बाबू ने जापान पहुँचते ही जून 1943 में टोकियो रेडियो से घोषणा की कि अंग्रेजों से यह आशा करना बिल्कुल व्यर्थ है कि वे स्वयं अपना साम्राज्य छोड़ देंगे. हमें भारत के भीतर व बाहर से स्वतंत्रता के लिये स्वयं संघर्ष करना होगा.
  3. इस बात से खुश होकर रासबिहारी बोस ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को आज़ाद हिन्द फौज़ का सर्वोच्च कमाण्डर नियुक्त करके उनके हाथों में इसकी कमान सौंप दी.
  4. आरम्भ में इस फौज़ में उन भारतीय सैनिकों को लिया गया था जो जापान द्वारा युद्धबन्दी बना लिये गये थे. बाद में इसमें  बर्मा और  मलाया  में भारतीय स्वयंसेवक भर्ती किये गए.
  5. 5 जुलाई 1943  को  सिंगापुर  के टाउन हाल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए “दिल्ली चलो!” का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया.
  6. 21 अक्टूबर 1943 के सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी. अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया.
  7. 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया. 4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया. 21 मार्च 1944 को ‘चलो दिल्ली’ के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्थान की धरती पर आगमन हुआ.  


26 जनवरी को परेड में जब आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक भाग लेगें तो उस मनोरम और रोमांचक माहौल को देखना अपने आप में देश के लोगों का सौभाग्य होगा.


Wednesday, 23 January 2019

कुम्भ की शोभा हैं अखाड़े, इन्हे कहते हैं सतानत धर्म की सेना


सतानत धर्म की सेना
कुंभ का एक महत्वपूर्ण भाग साधू-संतों के अखाड़े होते हैं. किसी भी कुंभ मेले का प्रमुख आकर्षण स्नान पर्व में भाग लेने वाले विभिन्न तरह के अखाड़े हैं. इन अखाड़ों की अपनी-अपनी विशेषताएं और परंपराएं हैं.
सतानत धर्म की सेना कहे जाने वाले अखाड़े कुम्भ पर्व की एक प्रमुख शोभा होते हैं. अखाड़ों का शाही प्रवेश (पेशवाई) और शाही स्नान श्रद्धालुओं के आकर्षण का मुख्य केन्द्र होता है. संगम की रेती पर सजी उनकी छावनी और उसमें धूनी रमाये नागा संन्यासी जहां भक्तों के लिए
आस्था व श्रद्धा के प्रतिमूर्ति होते हैं, वहीं विदेशियों के लिए कौतूहल के विषय. वास्तव में अखाड़े कुम्भ परम्परा के अभिन्न अंग हैं. इनके बगैर इस विराट समागम की कल्पना भी अकल्पनीय है. ‘अखाड़ा’ शब्द संस्कृत के अखण्ड शब्द का अपभ्रंश है. इसका तात्पर्य साधुओं व नागा संन्यासियों के उस संगठित समुदाय से है, जिनकी अपनी विशिष्ट परम्पराएं व रीति-रिवाज हैं. अखाड़ों को सनातन धर्म का सुरक्षा बल भी माना गया है.

कहा जाता है कि सनातन धर्म व भारतीय संस्कृति पर लगातार हो रहे आक्रमणों से तंग आकर साधु-सन्तों ने सैन्य संगठन बनाया. इन्ही में से कुछ ने सर्वस्व त्यागकर नागा (नंगा) रूप धारण कर लिया और जीवनपर्यन्त देश व धर्म की रक्षा करने की शपथ ली.
ये लोग जहां सैन्य प्रशिक्षण लेते थे, उन्हें अखाड़ा कहते थे. यहीं से अखाड़ों का अस्तित्व शुरू हुआ। कुम्भपर्व पर कौन अखाड़ा पहले स्नान करे, इसे लेकर पूर्व में कई बार रक्तपातपूर्ण लड़ाइयां हो चुकी हैं. बाद में ब्रिटिश सरकार ने एक नियम बनाया, तब निर्धारित क्रम से हर अखाड़े के संत-सन्यासी स्नान करने लगे.
अखाड़ों के इतिहास की वास्तविक कहानी आद्य शंकराचार्य भगवान से जुड़ी हुई है. आदि
शंकर ने सनातन धर्म का पुनरुत्थान करके वैदिक परम्परा और भारतीय संस्कृति को अक्षुण्य व
सुरक्षित बनाये रखने के लिए देश की चारों दिशाओं में चार मठ (पीठ) स्थापित किये. उन्होंने
पूरब दिशा में गोवर्धन मठ, पश्चिम में शारदा (द्वारका) मठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में
श्रृंगेरी मठ स्थापित कर वहां आचार्य नियुक्त किये.
जो बाद में शंकराचार्य कहलाये. आद्य शंकराचार्य ने दशों दिशाओं के प्रतीक स्वरूप दशनाम संन्यासियों की परम्परा का प्रवर्तन भी किया. साथ ही मठों व आचार्यों को व्यवस्था के लिए एक संविधान ग्रन्थ ‘मठाम्नाय-महानुशासन’ भी लिखा. आदि शंकर ने इन आचार्यों को शास्त्रों के माध्यम से सनातन धर्म को बचाने का दायित्व दिया.
इसी तरह सनातन धर्म और वैदिक परम्परा की शस्त्रों से रक्षा के लिए आद्य शंकराचार्य ने अखाड़ों की भी स्थापना की, जो सनातन धर्म के सुरक्षा कवच बने. प्रारम्भ में इन चारों मठों के आचार्य (अब शंकराचार्य) ही अखाड़ों के संन्यासियों को दीक्षा देते रहे. लेकिन कालान्तर में अखाड़े भी जब शस्त्र से शास्त्र की तरफ उन्मुख हुए, तो वहां के विद्वान परमहंस संन्यास की दीक्षा का कार्य प्रारम्भ कर दिया.

कुछ समय बाद इन विद्वान संन्यासियों को आचार्य महामण्डलेश्वर कहा जाने लगा। वर्तमान में प्रत्येक अखाड़े में एक आचार्य महामण्डलेश्वर व कई महामण्डलेश्वर होते हैं। अखाड़ों में इन महामण्डलेश्वरों की संख्या इस समय सैकड़ों में है.

इतिहास पढ़ने से पता चलता है कि मुगल शासकों को अफगानों से बचाने में नागा सन्यासियों ने सहायता की थी. बंगला के प्रसिद्ध साहित्यकार बंकिम चन्द्र चटर्जी ने अपनी पुस्तक आनन्द मठ में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध इन्हीं संन्यासियों के विद्रोह का उल्लेख किया है.
‘वंदेमातरम’ इन्हीं स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी संन्यासियों का गीत था. 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम
में इन्ही सन्यासियों ने झांसी की रानी और तात्या टोपे के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना को धूल
चटाई थी.
अनेक संन्यासियों ने महात्मा गांधी के अहिंसा क्रांन्ति में भी भाग लिया था. अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि और महामंत्री महंत हरि गिरि का कहना है कि आजादी के बाद अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया.



अखाड़ों को मुख्यतः चार भागों में बांटा जा सकता है। जिसमें प्रथम शैव सम्प्रदाय के
सात अखाड़े हैं- आवाहन, जूना, अग्नि, निरंजनी, महानिर्वाणी, अटल व आनन्द. इन अखाड़ों के सन्यासी शिव भक्त होते हैं. दूसरे वैष्णव अखाड़े हैं जो विष्णु, राम व कृष्ण के पुजारी हैं. 
इनमें श्री पंचायती दिगम्बर अनी, श्री पंच निर्वाणी अनी व निर्मोही अनी श्री पंच अखाड़ा है. तीसरी श्रेणी में उदासीन अखाड़े आते हैं जिनमें श्री पंचायती बड़ा उदासीन व श्री पंचायती नया उदासीन अखाड़ा है.
इन अखाड़ों के संत भी राम, कृष्ण व विष्णु को आराध्य मानते हैं। वहीं चौथे प्रकार में श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा आता है. इस तरह वर्तमान में कुल तेरह अखाड़े है.

प्रमुख तेरह अखाड़ों का विवरण
(1) श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा
पहले इसका नाम भैरव अखाड़ा था. इसके इष्टदेव भैरव ही थे. अब इस अखाड़े के इष्टदेव
दत्तात्रेय हैं जो रुद्रावतार माने जाते है. इसकी स्थापना वि.सं. 1202 में उत्तराखण्ड के
कर्णप्रयाग में हुई. इसका मुख्यालय वाराणसी में है. जूना का अर्थ पुराना होता है. इसीलिए
इसे सबसे पुराना अखाड़ा माना जाता है. वर्तमान में सबसे ज्यादा महामंडलेश्वर इसी अखाड़े
से हैं.
(2) श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा
इसकी स्थापना सन 547 में हुआ था, इसका केन्द्र दशाश्वमेध घाट काशी (वाराणसी) है.
इसके इष्टदेव गणेशजी व दत्ता़त्रेय हैं. इस अखाड़े में महिला साध्वियों की कोई परम्परा नहीं
है.
(3) श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी
इस अखाड़े की स्थापना सन् 749 में इष्टदेव कपिलजी ने की थी। इसका मुख्यालय दारागंज,
प्रयागराज है। इस अखाड़े के नागा संन्यासी बड़े ही शूरवीर तथा पराक्रमी होते थे। इस अखाड़े ने
1857 की क्रान्ति में पेशवा नाना साहब व महारानी लक्ष्मीबाई को सहयोग प्रदान कर अपने
पराक्रम का परिचय दिया था.
(4) श्री पंच अटल अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना सन 647 में हुई थी। इसके इष्टदेव गणेशजी और इसका केन्द्र काशी
वाराणसी में है. समाज को दीक्षित करना, धर्म के ज्ञान हेतु शास्त्रों व वेदों का ज्ञान देना,
सभ्यता, संस्कार और समता के भाव को फैलाना इस अखाड़े के सन्यासियों का मुख्य उद्देश्य
है.
(5) तपोनिधि श्री आनंद अखाड़ा पंचायती
इस अखाड़े की स्थापना सन् 856 में हुई. जिसके इष्टदेव सूर्यनारायण और कार्यालय नासिक में
है. रूढ़िवादिता, आडम्बर, धार्मिक समरसता को नुकसान पहुंचाने वाली प्रथायें और छुआछूत जैसी
कुरीतियों पर प्रहार करने हेतु इस अखाड़े का उद्भव हुआ है.
(6) श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी
इस अखाड़े की स्थापना सन 904 में हुई थी. इसके इष्टदेव कार्तिकेय हैं और इसका मुख्यालय-
दारागंज, प्रयागराज में है. इस अखाड़े के अधिकतर संन्यासी उच्च शिक्षा प्राप्त हैं. इनमें डॉक्टर,
लॉ एक्सपर्ट, प्रोफेसर, संस्कृत के विद्वान और आचार्य शामिल हैं. इस अखाड़े के कई संतों का
व्याख्यान आईआईटी और आईआईएम में भी होता है.
(7) श्री पंचदशनाम पंच अग्नि अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना सन 1136 हुई थी. इसके इष्टदेव गायत्री माता व मुख्यालय-जूनागढ़
गुजरात में है. इस अखाड़े में सिर्फ ब्राह्मणों को ही दीक्षा दी जाती है. ब्राह्मण होने के साथ
उनका ब्रह्मचारी होना भी आवश्यक है.



(8) श्री दिगम्बर अनी अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना अयोध्या में 15वीं सदी में हुई, इसका मुख्यालय-गुजरात में है। वैष्णव
संप्रदाय के अखाड़ों में इसे राजा कहा जाता है. इस अखाड़े में सबसे ज्यादा करीब 500 खालसा
हैं.
(9) श्री निर्मोही अनी अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना 18वीं शताब्दी में हुआ था. इसका मुख्यालय वृंदावन में है. इसी अखाड़े
ने 1959 में अयोध्या की विवादित भूमि पर अपना मालिकाना हक जताते हुए एक मुकदमा
दायर किया था, तभी से यह चर्चा में है. पुराने समय में इस अखाड़ों के साधुओं को तीरंदाजी
और तलवारबाजी की शिक्षा दिलाई जाती थी.

(10) श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना-15वीं सदी में हुआ था. इसके इष्टदेव हनुमान हैं. और मुख्यालय
अयोध्या में है. कुश्ती इस अखाड़े के जीवन का एक हिस्सा है। इस अखाड़े के कई संत प्रसिद्ध
पहलवान भी रह चुके हैं.

(11) श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना सन 1025 में हुई थी. इसके इष्टदेव श्री चंद्रदेव और पंचदेव उपासना
पद्धति प्रचलित है. इसका मुख्यालय कीडगंज, प्रयागराज में है. इस अखाड़े का उद्देश्य सेवा
करना है. इस अखाड़े में चार महंत होते हैं, जो कभी सेवानिवृत नहीं होते है.

(12) श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन
इस अखाड़े की स्थापना सन् 1846 हुई थी. जिसके ईष्टदेव श्रीचंद्रदेव, पंचदेव आराधना की भी
परम्परा है. इसका मुख्यालय-हरिद्वार में है. बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ साधुओं ने विभक्त
होकर इसे स्थापित किया था. इस अखाड़े में उन्हीं को नागा बनाया जाता है, जो आठ से 12
साल की उम्र के होते हैं.
(13) श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना सन् 1826 में हुई थी. इसके ईष्टदेव श्री गुरुग्रंथ साहिब हैं, जिसका
मुख्यालय-हरिद्वार में है। इस अखाड़े में धूम्रपान पर पूरी तरह पाबंदी है.

पंचायती राज व्यवस्था का अनोखा प्रयोग
अखाड़ों में लोकतंत्र एवं पंचायती राज व्यवस्था का अनोखा प्रयोग देखने को मिलता है.
दुनिया में शायद ही इतना प्राचीन लोकतन्त्र कहीं और हो. अखाड़ों में रमता पंच व शम्भू पंच
नामक दो प्रमुख पंचायतें (सदन) होती हैं. इनका अपना शासनतन्त्र भी होता है. रमता पंच के
संचालन के लिए श्री महंत, अष्ट कौशल महंत, पुजारी, कोतवाल व कोठारी होते हैं, जबकि
सभापति, सचिव व थानापति शंभू पंच, जिसे बूढ़ा पंच भी कहा जाता है, का संचालन करते हैं.
दोनों पंचायतों के पदाधिकारियों का चुनाव क्रमशः हर तीसरे व छठे वर्ष कुम्भ के अवसर पर
किया जाता है. इनका निर्वाचन व चयन लोकतंत्रीय व्यवस्था के तहत होता है. गुरु-शिष्य
परम्परा के प्रर्याय ये अखाड़े इस प्राचीन व्यवस्था को बाखूबी निभा रहे हैं. इस परम्परा में
शिष्यों के चयन की भी एक प्रक्रिया है, जिसे पूरा किये बगैर कोई भी अखाड़े में प्रवेश नहीं कर
सकता.

अखाड़ों के लोकतंत्रीय व्यवस्था का स्वरूप कुम्भपर्व पर भी परिलक्षित होता है. जिस
तरह आज के राज्य गणतंत्र दिवस पर सांस्कृतिक प्रदर्शनी के साथ-साथ अपनी सैन्य शक्ति का
भी प्रदर्शन करते हैं, उसी तरह संन्यासी अखाड़े भी कुम्भपर्व पर अपने पराक्रम का भरपूर प्रदर्शन
करते हैं, जिनका अवलोकन पेशवाई, शाही स्नान व इनकी छावनी की गतिविधियों में दिखाई
पड़ता है। इसीलिए कुम्भ व अर्धकुम्भ को ये अपना महापर्व कहते हैं.

कुंभ के बाद क्या करते अखाड़े
कुम्भ पर्व के बाद भी अखाड़ों की होने वाली गतिविधियां कम रोचक नहीं हैं. इनका
रमता पंच एक कुम्भ समाप्त होने के बाद अगले कुम्भ के लिए रवाना हो जाता है. उदाहरण के
तौर पर वर्ष 2016 में उज्जैन कुम्भ व्यतीत करने के बाद अखाड़ों का रमता पंच देशाटन के
लिए निकल पड़ा और भ्रमण करते हुए प्रयाग अर्द्धकुम्भ 2019, जिसे प्रदेश सरकार ने पूर्ण
कुम्भ की संज्ञा दी है, के शुरू होने के कुछ समय पहले ही पूरे लाव-लश्कर के साथ प्रयागराज
नगर में प्रवेश किया.
दूसरी तरफ शंभू पंच के संन्यासी इस दौरान धर्म का प्रचार और सामाजिक कार्य करते हैं. ये शैक्षणिक संस्थान भी संचालित करते हैं. यही नहीं, प्राकृतिक आपदा के समय ये संन्यासी जनसेवा का कार्य भी करते हैं. साथ ही गरीबों व असहायों की मदद को भी आगे आते हैं.

Thursday, 11 January 2018

लालबहादुर शास्त्री

लालबहादुर शास्त्री 

भारत के दूसरे प्रधानमंत्री
कार्यकाल
९ जून १९६४ – ११ जनवरी १९६६
जन्म 2 अक्टूबर 1904
मुगलसराय, अब पंडित दीन दयाल उपाध्याय ब्रिटिश भारत
मृत्यु 11 जनवरी 1966 (उम्र 61)
ताशकन्द, सोवियत संघ
राजनैतिक दल - भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
जीवन संगी-ललिता शास्त्री
राजनेता, स्वतंत्रता सेनानी
हिन्दू धर्म

लालबहादुर शास्त्री (जन्म: 2 अक्टूबर 1904 मुगलसराय - मृत्यु: 11 जनवरी 1966 ताशकन्द), भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री थे। वह 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे। इस प्रमुख पद पर उनका कार्यकाल अद्वितीय रहा।

भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहकों (कण्डक्टर्स) की नियुक्ति की थी। पुलिस मन्त्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ कराया। 1951 में, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिये बहुत परिश्रम किया।

जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधान मन्त्री का पद भार ग्रहण किया।


उनके शासनकाल में 1965 का भारत पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था। शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी।

ताशकन्द में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी।

उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

We pay homage to Shastri Ji on his Punya Tithi. His impeccable service and courageous leadership will be remembered for generations to come.https://twitter.com/narendramodi/status/951296143350214657


संक्षिप्त जीवनी
लालबहादुर शास्त्री का जन्म 1904 में मुगलसराय (उत्तर प्रदेश) में मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के यहाँ हुआ था। उनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे अत: सब उन्हें मुंशीजी ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में लिपिक (क्लर्क) की नौकरी कर ली थी।[1] लालबहादुर की माँ का नाम रामदुलारी था। परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार में नन्हें कहकर ही बुलाया करते थे। जब नन्हें अठारह महीने का हुआ दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया। उसकी माँ रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्ज़ापुर चली गयीं। कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे। बिना पिता के बालक नन्हें की परवरिश करने में उसके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी माँ का बहुत सहयोग किया। ननिहाल में रहते हुए उसने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे 'शास्त्री' लगा लिया। इसके पश्चात् शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया।

1928 में उनका विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता से हुआ। ललिता शास्त्री से उनके छ: सन्तानें हुईं, दो पुत्रियाँ-कुसुम व सुमन और चार पुत्र-हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक। उनके चार पुत्रों में से दो-अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री अभी हैं, शेष दो दिवंगत हो चुके हैं। अनिल शास्त्री कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता हैं जबकि सुनील शास्त्री भारतीय जनता पार्टी में चले गये।


राजनीतिक जीवन

"मरो नहीं, मारो!" का नारा लालबहादुर शास्त्री ने दिया जिसने क्रान्ति को पूरे देश में प्रचण्ड किया।
संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् वे भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी सच्चे गान्धीवादी थे जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेलों में भी रहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं।

दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को "भारत छोड़ो" व भारतीयों को "करो या मरो" का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा पुणे स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। 9 अगस्त 1942 के दिन शास्त्रीजी ने इलाहाबाद पहुँचकर इस आन्दोलन के गान्धीवादी नारे को चतुराई पूर्वक "मरो नहीं, मारो!" में बदल दिया और अप्रत्याशित रूप से क्रान्ति की दावानल को पूरे देश में प्रचण्ड रूप दे दिया। पूरे ग्यारह दिन तक भूमिगत रहते हुए यह आन्दोलन चलाने के बाद 19 अगस्त 1942 को शास्त्रीजी गिरफ्तार हो गये।

शास्त्रीजी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। सबसे पहले 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टण्डनजी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया। इलाहाबाद में रहते हुए ही नेहरूजी के साथ उनकी निकटता बढी। इसके बाद तो शास्त्रीजी का कद निरन्तर बढता ही चला गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियाँ चढते हुए वे नेहरूजी के मंत्रिमण्डल में गृहमन्त्री के प्रमुख पद तक जा पहुँचे। और इतना ही नहीं, नेहरू के निधन के पश्चात भारतवर्ष के प्रधान मन्त्री भी बने।


प्रधान मन्त्री
उनकी साफ सुथरी छवि के कारण ही उन्हें 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धान्तिक न होकर पूर्णत: व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थे।

निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाये तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा। पूँजीपति देश पर हावी होना चाहते थे और दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की फिराक में थे। 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर सायं 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया। परम्परानुसार राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुला ली जिसमें तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मन्त्रिमण्डल के सदस्य शामिल थे। संयोग से प्रधानमन्त्री उस बैठक में कुछ देर से पहुँचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ। तीनों प्रमुखों ने उनसे सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए पूछा: "सर! क्या हुक्म है?" शास्त्रीजी ने एक वाक्य में तत्काल उत्तर दिया: "आप देश की रक्षा कीजिये और मुझे बताइये कि हमें क्या करना है?"

शास्त्रीजी ने इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और जय जवान-जय किसान का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और सारा देश एकजुट हो गया। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी।

ब्रिगेडियर हरी सिंह, जो उस समय प्रथम भारतीय बख्तरबंद डिविजन की १८वीं यूनिट में सैनिक थे, लाहौर (पाकिस्तान) में बरकी पुलिस थाने के बाहर तैनात भारत पाक युद्ध के दौरान ६ सितम्बर को भारत की १५वी पैदल सैन्य इकाई ने द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेत्तृत्व में इच्छोगिल नहर के पश्चिमी किनारे पर पाकिस्तान के बहुत बड़े हमले का डटकर मुकाबला किया। इच्छोगिल नहर भारत और पाकिस्तान की वास्तविक सीमा थी। इस हमले में खुद मेजर जनरल प्रसाद के काफिले पर भी भीषण हमला हुआ और उन्हें अपना वाहन छोड़ कर पीछे हटना पड़ा। भारतीय थलसेना ने दूनी शक्ति से प्रत्याक्रमण करके बरकी गाँव के समीप नहर को पार करने में सफलता अर्जित की। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अड्डे पर हमला करने की सीमा के भीतर पहुँच गयी। इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिये कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की।

आखिरकार रूस और अमरिका की मिलीभगत से शास्त्रीजी पर जोर डाला गया। उन्हें एक सोची समझी साजिश के तहत रूस बुलवाया गया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हमेशा उनके साथ जाने वाली उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को बहला फुसलाकर इस बात के लिये मनाया गया कि वे शास्त्रीजी के साथ रूस की राजधानी ताशकन्द न जायें और वे भी मान गयीं। अपनी इस भूल का श्रीमती ललिता शास्त्री को मृत्युपर्यन्त पछतावा रहा। जब समझौता वार्ता चली तो शास्त्रीजी की एक ही जिद थी कि उन्हें बाकी सब शर्तें मंजूर हैं परन्तु जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटाना हरगिज़ मंजूर नहीं। काफी जद्दोजहेद के बाद शास्त्रीजी पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाकर ताशकन्द समझौते के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करा लिये गये। उन्होंने यह कहते हुए हस्ताक्षर किये थे कि वे हस्ताक्षर जरूर कर रहे हैं पर यह जमीन कोई दूसरा प्रधान मन्त्री ही लौटायेगा, वे नहीं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही उनकी मृत्यु हो गयी। यह आज तक रह बना हुआ है कि क्या वाकई शास्त्रीजी की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी? कई लोग उनकी मौत की वजह जहर को ही मानते हैं।

शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हें मरणोपरान्त वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।


रहस्यपूर्ण मृत्यु

मुंबई में शास्त्रीजी की आदमकद प्रतिमा
ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उसी रात उनकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया। शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ शान्तिवन (नेहरू जी की समाधि) के आगे यमुना किनारे की गयी और उस स्थल को विजय घाट नाम दिया गया। जब तक कांग्रेस संसदीय दल ने इन्दिरा गान्धी को शास्त्री का विधिवत उत्तराधिकारी नहीं चुन लिया, गुलजारी लाल नन्दा कार्यवाहक प्रधानमन्त्री रहे।

शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं, मत है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई पहली इन्क्वायरी राज नारायण ने करवायी थी, जो बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी ऐसा बताया गया। मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है। यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर०एन०चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी।


शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। 2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (अंग्रेजी: CIA's Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता।"।

सबसे पहले सन् 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक ललिता के आँसू में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था। उस समय (सन् उन्निस सौ अठहत्तर में) ललिताजी जीवित थीं।

यही नहीं, कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक में लेखक पत्रकार कुलदीप नैयर ने भी, जो उस समय ताशकन्द में शास्त्रीजी के साथ गये थे, इस घटना चक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है। गत वर्ष जुलाई 2012 में शास्त्रीजी के तीसरे पुत्र सुनील शास्त्री ने भी भारत सरकार से इस रहस्य पर से पर्दा हटाने की माँग की थी।

Saturday, 30 December 2017

बिरसा मुंडा 19वीं सदी के प्रमुख आदिवासी जननायक

बिरसा मुंडा 19वीं सदी के प्रमुख आदिवासी जननायक
  
बिरसा मुंडा
(15 नवंबर 1875 से 9 जून 1900)
जन्मस्थल : उलीहातु, खूँटी झारखंड
मृत्युस्थल: राँची झारखंड
आन्दोलन: भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम

बिरसा मुंडा 19वीं सदी के एक प्रमुख आदिवासी जननायक थे। उनके नेतृत्‍व में मुंडा आदिवासियों ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में मुंडाओं के महान आन्दोलन उलगुलान को अंजाम दिया। बिरसा को मुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं।



आरंभिक जीवन
सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म १५ नवम्बर १८७५ को झारखंड प्रदेश मेंराँची के उलीहातू गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढने आये। इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। १८९४ में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।

मुंडा विद्रोह का नेतृत्‍व
1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग "धरती बाबा" के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।

बिरसा मुण्डा की राँची में स्थित मूर्ति
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।

जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं। अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये।

बिरसा ने अपनी अन्तिम साँसें 9 जून 1900 को राँची कारागार में लीं। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है।

बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा हवाई-अड्डा भी है।
मुंडा विद्रोह
मुंडा जनजातियों ने 18वीं सदी से लेकर 20वीं सदी तक कई बार अंग्रेजी सरकार और भारतीय शासकों, जमींदारों के खिलाफ विद्रोह किये। बिरसा मुंडा के नेतृत्‍व में 19वीं सदी के आखिरी दशक में किया गया मुंडा विद्रोह उन्नीसवीं सदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण जनजातीय आंदोलनों में से एक है। इसे उलगुलान नाम से भी जाना जाता है। मुंडा विद्रोह झारखण्ड का सबसे बड़ा और अंतिम रक्ताप्लावित जनजातीय विप्लव था, जिसमे हजारों की संख्या में मुंडा आदिवासी शहीद हुए। मशहूर समाजशास्‍त्री और मानव विज्ञानी कुमार सुरेश सिंह ने बिरसा मुंडा के नेतृत्‍व में हुए इस आंदोलन पर 'बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन' नाम से बडी महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक लिखी है।


विद्रोह की पृष्‍ठभूमि
बिरसा मुंडा ने मुंडा आदिवासियों के बीच अंग्रेजी सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लोगों को जागरूक करना शुरू किया। जब सरकार द्वारा उन्‍हें रोका गया और गिरफ्तार कर लिया तो उसने धार्मिक उपदेशों के बहाने आदिवासियों में राजनीतिक चेतना फैलाना शुरू किया। वह स्‍वयं को भगवान कहने लग गया। उसने मुंडा समुदाया में धर्म व समाज सुधार के कार्यक्रम शुरू किये और तमाम कुरीतियों से मुक्ति कर प्रण लिया।

विद्रोह और उसके बाद
1898 में डोम्‍बरी पहाडियों पर मुं‍डाओं की विशाल सभा हुई, जिसमें आंदोलन की पृष्‍ठभूमि तैयार हुई। आदिवासियों के बीच राजनीतिक चेतना फैलाने का काम चलता रहा। अंत में 24 दिसम्बर 1899 को बिरसापंथियों ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड दिया। 5 जनवरी 1900 तक पूरे मंडा अंचल में विद्रोह की चिंगारियां फैल गई। ब्रिटिश फौज ने आंदोलन का दमन शुरू कर दिया। 9 जनवरी 1900 का दिन मुंडा इतिहास में अमर हो गया जब डोम्बार पहा‍डी पर अंग्रेजों से लडते हुए सैंकडों मुंडाओं ने शहादत दी। आंदोलन लगभग समाप्त हो गया। गिरफ्तार किये गए मुंडाओं पर मुकदमे चलाए गए जिसमें दो को फांसी, 40 को आजीवन कारावास, 6 को चौदह वर्ष की सजा, 3 को चार से छह बरस की जेल और 15 को तीन बरस की जेल हुई।

बिरसा की गिरफ्तारी और अंत
बिरसा मुंडा काफी समय तक तो पुलिस की पकड में नहीं आये थे, लेकिन एक स्थानीय गद्दार की वजह से 3 मार्च 1900 को गिरफ्तार हो गए। लगातार जंगलों में भूखे-प्यासे भटकने की वजह से वह कमजोर हो चुके थे। जेल में उन्हे हैंजा हो गया और 9 जून 1900 को रांची जेल में उनकी मृत्यु. हो गई। लेकिन जैसा कि बिरसा कहते थे, आदमी को मारा जा सकता है, उसके विचारों को नहीं, बिरसा के विचार मुंडाओं और पूरी आदिवासी कौम को संघर्ष की राह दिखाते रहे। आज भी आदिवासियों के लिए बिरसा का सबसे बड़ा स्था्न है।

Sunday, 23 July 2017

(कट्टर देशभक्त) *बलिदानी नायक पं. चन्द्रशेखर आजाद



पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद' उपनाम पण्डित जी..
(२३ जुलाई १९०६ से २७ फ़रवरी १९३१)

जब कभी भी आपको किसी शक्तिशाली व्यक्तित्व को देखने की इच्छा हो तो आपके दिमाग में सबसे पहले भारत के उग्र स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद का नाम अवश्य आयेगा। वे भारत के महान और शक्तिशाली क्रांतिकारी थे, आज़ाद भारत को अंग्रेजो के चंगुल से छुडाना चाहते थे।


(कट्टर देशभक्त)
*बलिदानी नायक पं. चन्द्रशेखर आजाद(चन्द्रशेखर तिवारी) जी को उनके जन्मदिवस की शत् - शत् शुभकामनाएँ..आप हिन्दुस्तानियों के दिल में हमेशा जिन्दा रहेंगे..

सबसे पहले उन्होंने महात्मा गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया था, बाद में उन्होंने आज़ादी के लिये संघर्ष करने के लिये हथियारों का उपयोग किया। आज़ाद के आश्चर्यचकित कारनामो में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन संस्था शामिल है। उन्होंने अपने सहकर्मी भगत सिंह और सुखदेव के साथ मिलकर अंग्रेजो से लड़ना शुरू किया था, और इसके लिये उन्होंने झाँसी कैंप की भी स्थापना की।
चंद्रशेखर आजाद मरते दम तक अंग्रेजो के हाथ न आने की कसम खाई थी और मरते दम तक वे अंग्रेजो के हाथ में भी नही आये थे, उन्होंने अपने अंतिम समय में अंग्रेजो हाथ आने के बजाये गर्व से खुद को गोली मार दी थी, और भारत की आज़ादी के लिये अपने प्राणों का बलिदान दिया था। आज इस महान क्रांतिकारी के महान जीवन के बारे में कुछ जानते हैं।

“मेरे भारत माता की इस दुर्दशा को देखकर यदि अभी तक आपका रक्त क्रोध नहीं करता है, तो यह आपकी रगों में बहता खून है ही नहीं या फिर बस पानी है” ~ CHANDRA SHEKHAR 



पण्डित चन्द्रशेखर 'आजाद' (२३ जुलाई १९०६ - २७ फ़रवरी १९३१) ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के स्वतंत्रता सेनानी थे। वे पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल व सरदार भगत सिंह सरीखे क्रान्तिकारियों के अनन्यतम साथियों में से थे। सन् १९२२ में गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन के सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में पहले ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये। इसके पश्चात् सन् १९२७ में 'बिस्मिल' के साथ ४ प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स का हत्या करके लिया एवं दिल्ली पहुँच कर असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया।

चन्द्रशेखर आजाद पार्क, इलाहाबाद, भारत में चन्द्रशेखर आजाद की प्रतिमा

उपनाम : 'आजाद','पण्डित जी','बलराज' व 'Quick Silver'
जन्मस्थल : भाबरा गाँव (चन्द्र्शेखर आज़ादनगर) (वर्तमान अलीराजपुर जिला)
मृत्युस्थल: चन्द्रशेखर आजाद पार्क, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

आन्दोलन: भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम
प्रमुख संगठन:हिदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन-के प्रमुख सेनापति (१९२८)

जन्म तथा प्रारम्भिक जीवन


अपने पैतृक गाँव में चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति

चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाबरा गाँव (अब चन्द्रशेखर आजादनगर) (वर्तमान अलीराजपुर जिला) में २३ जुलाई सन् १९०६ को हुआ था।उनके पूर्वज बदरका (वर्तमान उन्नाव जिला) से थे। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी संवत् १९५६ में अकाल के समय अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भाबरा गाँव में बस गये। यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गाँव में बीता अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाये। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी। बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन अब देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल "हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ" के नाम से जाना जाता था।


पहली घटना
१९१९ में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को उद्वेलित कर दिया। चन्द्रशेखर उस समय पढाई कर रहे थे। जब गांधीजी ने सन् १९२१ में असहयोग आन्दोलनका फरमान जारी किया तो वह आग ज्वालामुखी बनकर फट पड़ी और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर भी सडकों पर उतर आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ़्तार हुए और उन्हें १५ बेतों की सज़ा मिली। इस घटना का उल्लेख पं० जवाहरलाल नेहरू ने कायदा तोड़ने वाले एक छोटे से लड़के की कहानी के रूप में किया है- ऐसे ही कायदे (कानून) तोड़ने के लिये एक छोटे से लड़के को, जिसकी उम्र १५ या १६ साल की थी और जो अपने को आज़ाद कहता था, बेंत की सजा दी गयी। वह नंगा किया गया और बेंत की टिकटी से बाँध दिया गया। जैसे-जैसे बेंत उस पर पड़ते थे और उसकी चमड़ी उधेड़ डालते थे, वह 'भारत माता की जय!' चिल्लाता था। हर बेंत के साथ वह लड़का तब तक यही नारा लगाता रहा, जब तक वह बेहोश न हो गया। बाद में वही लड़का उत्तर भारत के क्रान्तिकारी कार्यों के दल का एक बड़ा नेता बना।|पं० जवाहरलाल नेहरू


क्रान्तिकारी संगठन
चन्द्र शेखर आजाद के नाम को साधारणतः चंद्रशेखर या चन्द्रसेखर भी कहते है। उनका जीवनकाल 23 जुलाई 1906 से 27 फ़रवरी 1931 के बीच था। ज्यादातर वे आजाद के नाम से लोकप्रिय है। वे एक भारतीय क्रांतिकारी थे जिन्होंने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल और तीन और मुख्य नेता रोशन सिंह, राजेंद्र नाथ लाहिरी और अश्फकुल्ला खान की मृत्यु के बाद नये नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) पुनर्संगठित किया था।
असहयोग आन्दोलन के दौरान जब फरवरी १९२२ में चौरी चौरा की घटना के पश्चात् बिना किसे से पूछे गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने १९२४ में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच० आर० ए०) का गठन किया। चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गये। इस संगठन ने जब गाँव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके तो यह तय किया गया कि किसी भी औरत के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक औरत ने आज़ाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आज़ाद ने अपने उसूलों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आज़ाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल ने मकान के अन्दर घुसकर उस औरत के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डाँटते हुए खींचकर बाहर लाये। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। १ जनवरी १९२५ को दल ने समूचे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा द रिवोल्यूशनरी (क्रान्तिकारी) बाँटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इस पैम्फलेट में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी। इश्तहार के लेखक के रूप में "विजयसिंह" का छद्म नाम दिया गया था। शचींद्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगाल में पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बाँकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। "एच० आर० ए०" के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं - बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था।

इस संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया। जब शाहजहाँपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ भी। अंग्रेज़ चन्द्रशेखर आज़ाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओँ - पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल', अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुररोशन सिंह को १९ दिसम्बर १९२७ तथा उससे २ दिन पूर्व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी पर लटकाकर मार दिया गया। सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने से इस मुकदमे के दौरान दल पाय: निष्क्रिय ही रहा। एकाध बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आज़ाद के अलावा भगत सिंह भी शामिल थे लेकिन किसी कारण वश यह योजना पूरी न हो सकी।

४ क्रान्तिकारियों को फाँसी और १६ को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आज़ाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर ८ सितम्बर १९२८ को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इसी सभा में यह भी तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल घोषित करते हुए "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन" का नाम बदलकर "हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन" रखा गया। चन्द्रशेखर आज़ाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व सम्हाला। इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया - "हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत।"


चरम सक्रियता
आज़ाद के प्रशंसकों में पण्डित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तमदास टंडन का नाम शुमार था। जवाहरलाल नेहरू से आज़ाद की भेंट आनन्द भवन में हुई थी उसका ज़िक्र नेहरू ने अपनी आत्मकथा में 'फासीवादी मनोवृत्ति' के रूप में किया है। इसकी कठोर आलोचना मन्मथनाथ गुप्त ने अपने लेखन में की है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि नेहरू ने आज़ाद को दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार रुपये दिये थे जिनमें से ४४८ रूपये आज़ाद की शहादत के वक़्त उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर १९२८-३१ के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया। जबकि यह बात सच नहीं है। चन्द्रशेखर आज़ाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आज़ाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की। आज़ाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने २३ दिसम्बर १९२९ को दिल्ली के नज़दीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आज़ाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आज़ाद को २८ मई १९३० को भगवती चरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था। इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फाँसी रुकवाने के लिए आज़ाद ने दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आज़ाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे। झाँसी में मास्टर रुद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर १९३० को पुलिस ने आज़ाद से एक पार्क में मिलने जाते वक्त शहीद कर दिया था।


बलिदान
एच०एस०आर०ए० द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फ़रवरी १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आज़ाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की। इस पर नेहरू जी ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा तो वे अपने तकियाकलाम 'स्साला' के साथ भुनभुनाते हुए ड्राइँग रूम से बाहर आये और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह दुखद घटना २७ फ़रवरी १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी।

पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आज़ाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद की बलिदान की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे। समूचे शहर में आजाद की बलिदान की खबर से जब‍रदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों प‍र हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये।


आज़ाद के बलिदान की खबर जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को मिली तो उन्होंने तमाम काँग्रेसी नेताओं व अन्य देशभक्तों को इसकी सूचना दी।। बाद में शाम के वक्त लोगों का हुजूम पुरुषोत्तम दास टंडन के नेतृत्व में इलाहाबाद के रसूलाबाद शमशान घाट पर कमला नेहरू को साथ लेकर पहुँचा। अगले दिन आजाद की अस्थियाँ चुनकर युवकों का एक जुलूस निकाला गया। इस जुलूस में इतनी ज्यादा भीड थी कि इलाहाबाद की मुख्य सडकों पर जाम लग गया। ऐसा लग रहा था जैसे इलाहाबाद की जनता के रूप में सारा हिन्दुस्तान अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने उमड पड़ा हो। जुलूस के बाद सभा हुई। सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल ने सम्बोधित करते हुए कहा कि जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की बलिदान के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा। सभा को कमला नेहरू तथा पुरुषोत्तम दास टंडन ने भी सम्बोधित किया। इससे कुछ ही दिन पूर्व ६ फ़रवरी १९२७ को पण्डित मोतीलाल नेहरू के देहान्त के बाद आज़ाद भेष बदलकर उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे।

व्यक्तिगत जीवन


चन्द्रशेखर आजाद की छवि
आजाद प्रखर देशभक्त थे। काकोरी काण्ड में फरार होने के बाद से ही उन्होंने छिपने के लिए साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग उन्होंने कई बार किया। एक बार वे दल के लिये धन जुटाने हेतु गाज़ीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाये। परन्तु वहाँ जाकर जब उन्हें पता चला कि साधु उनके पहुँचने के पश्चात् मरणासन्न नहीं रहा अपितु और अधिक हट्टा-कट्टा होने लगा तो वे वापस आ गये। प्राय: सभी क्रान्तिकारी उन दिनों रूस की क्रान्तिकारी कहानियों से अत्यधिक प्रभावित थे आजाद भी थे लेकिन वे खुद पढ़ने के बजाय दूसरों से सुनने में ज्यादा आनन्दित होते थे। एक बार दल के गठन के लिये बम्बई गये तो वहाँ उन्होंने कई फिल्में भी देखीं। उस समय मूक फिल्मों का ही प्रचलन था अत: वे फिल्मो के प्रति विशेष आकर्षित नहीं हुए।

चन्द्रशेखर आज़ाद ने वीरता की नई परिभाषा लिखी थी। उनके बलिदान के बाद उनके द्वारा प्रारम्भ किया गया आन्दोलन और तेज हो गया, उनसे प्रेरणा लेकर हजारों युवक स्‍वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। आजाद की शहादत के सोलह वर्षों बाद १५ अगस्त सन् १९४७ को हिन्दुस्तान की आजादी का उनका सपना पूरा तो हुआ किन्तु वे उसे जीते जी देख न सके। सभी उन्हें पण्डितजी ही कहकर सम्बोधित किया करते थे।


" महायज्ञ का नायक शेखर, गौरव भारत भू का है
जिसका भारत की जनता से रिश्ता आज लहू का है
जिसके जीवन की शैली ने हिम्मत को परिभाषा दी
जिसके पिस्टल की गोली ने इंकलाब को भाषा दी
जिसने धरा गुलामी वाली क्रांति निकेतन कर डाली
आजादी के हवन कुंड में अग्नि चेतन कर डाली
जिसको खूनी मेंहदी से भी देह रचाना आता था
आजादी का योद्धा केवल नमक चबेना खाता था
अब तो नेता पर्वत सड़कें नहरों को खा जाते हैं
नए जिलों के शिलान्यास में शहरों को खा जाते हैं"...भारत माता की जय..वन्देमातरम् इंकलाब - जिन्दाबाद..

सबसे पवित्र मास होता है सावन, काशी विश्वनाथ के दर्शन करने से मिलता है मोक्ष

बोल बम के जयघोष के साथ सभी भक्त मां गंगा में स्नान करके जलकलश भरकर बाबा भोलेनाथ को अर्पण करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं. काशी के का...