Wednesday 23 January 2019

कुम्भ की शोभा हैं अखाड़े, इन्हे कहते हैं सतानत धर्म की सेना


सतानत धर्म की सेना
कुंभ का एक महत्वपूर्ण भाग साधू-संतों के अखाड़े होते हैं. किसी भी कुंभ मेले का प्रमुख आकर्षण स्नान पर्व में भाग लेने वाले विभिन्न तरह के अखाड़े हैं. इन अखाड़ों की अपनी-अपनी विशेषताएं और परंपराएं हैं.
सतानत धर्म की सेना कहे जाने वाले अखाड़े कुम्भ पर्व की एक प्रमुख शोभा होते हैं. अखाड़ों का शाही प्रवेश (पेशवाई) और शाही स्नान श्रद्धालुओं के आकर्षण का मुख्य केन्द्र होता है. संगम की रेती पर सजी उनकी छावनी और उसमें धूनी रमाये नागा संन्यासी जहां भक्तों के लिए
आस्था व श्रद्धा के प्रतिमूर्ति होते हैं, वहीं विदेशियों के लिए कौतूहल के विषय. वास्तव में अखाड़े कुम्भ परम्परा के अभिन्न अंग हैं. इनके बगैर इस विराट समागम की कल्पना भी अकल्पनीय है. ‘अखाड़ा’ शब्द संस्कृत के अखण्ड शब्द का अपभ्रंश है. इसका तात्पर्य साधुओं व नागा संन्यासियों के उस संगठित समुदाय से है, जिनकी अपनी विशिष्ट परम्पराएं व रीति-रिवाज हैं. अखाड़ों को सनातन धर्म का सुरक्षा बल भी माना गया है.

कहा जाता है कि सनातन धर्म व भारतीय संस्कृति पर लगातार हो रहे आक्रमणों से तंग आकर साधु-सन्तों ने सैन्य संगठन बनाया. इन्ही में से कुछ ने सर्वस्व त्यागकर नागा (नंगा) रूप धारण कर लिया और जीवनपर्यन्त देश व धर्म की रक्षा करने की शपथ ली.
ये लोग जहां सैन्य प्रशिक्षण लेते थे, उन्हें अखाड़ा कहते थे. यहीं से अखाड़ों का अस्तित्व शुरू हुआ। कुम्भपर्व पर कौन अखाड़ा पहले स्नान करे, इसे लेकर पूर्व में कई बार रक्तपातपूर्ण लड़ाइयां हो चुकी हैं. बाद में ब्रिटिश सरकार ने एक नियम बनाया, तब निर्धारित क्रम से हर अखाड़े के संत-सन्यासी स्नान करने लगे.
अखाड़ों के इतिहास की वास्तविक कहानी आद्य शंकराचार्य भगवान से जुड़ी हुई है. आदि
शंकर ने सनातन धर्म का पुनरुत्थान करके वैदिक परम्परा और भारतीय संस्कृति को अक्षुण्य व
सुरक्षित बनाये रखने के लिए देश की चारों दिशाओं में चार मठ (पीठ) स्थापित किये. उन्होंने
पूरब दिशा में गोवर्धन मठ, पश्चिम में शारदा (द्वारका) मठ, उत्तर में ज्योतिर्मठ और दक्षिण में
श्रृंगेरी मठ स्थापित कर वहां आचार्य नियुक्त किये.
जो बाद में शंकराचार्य कहलाये. आद्य शंकराचार्य ने दशों दिशाओं के प्रतीक स्वरूप दशनाम संन्यासियों की परम्परा का प्रवर्तन भी किया. साथ ही मठों व आचार्यों को व्यवस्था के लिए एक संविधान ग्रन्थ ‘मठाम्नाय-महानुशासन’ भी लिखा. आदि शंकर ने इन आचार्यों को शास्त्रों के माध्यम से सनातन धर्म को बचाने का दायित्व दिया.
इसी तरह सनातन धर्म और वैदिक परम्परा की शस्त्रों से रक्षा के लिए आद्य शंकराचार्य ने अखाड़ों की भी स्थापना की, जो सनातन धर्म के सुरक्षा कवच बने. प्रारम्भ में इन चारों मठों के आचार्य (अब शंकराचार्य) ही अखाड़ों के संन्यासियों को दीक्षा देते रहे. लेकिन कालान्तर में अखाड़े भी जब शस्त्र से शास्त्र की तरफ उन्मुख हुए, तो वहां के विद्वान परमहंस संन्यास की दीक्षा का कार्य प्रारम्भ कर दिया.

कुछ समय बाद इन विद्वान संन्यासियों को आचार्य महामण्डलेश्वर कहा जाने लगा। वर्तमान में प्रत्येक अखाड़े में एक आचार्य महामण्डलेश्वर व कई महामण्डलेश्वर होते हैं। अखाड़ों में इन महामण्डलेश्वरों की संख्या इस समय सैकड़ों में है.

इतिहास पढ़ने से पता चलता है कि मुगल शासकों को अफगानों से बचाने में नागा सन्यासियों ने सहायता की थी. बंगला के प्रसिद्ध साहित्यकार बंकिम चन्द्र चटर्जी ने अपनी पुस्तक आनन्द मठ में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध इन्हीं संन्यासियों के विद्रोह का उल्लेख किया है.
‘वंदेमातरम’ इन्हीं स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी संन्यासियों का गीत था. 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम
में इन्ही सन्यासियों ने झांसी की रानी और तात्या टोपे के साथ मिलकर ब्रिटिश सेना को धूल
चटाई थी.
अनेक संन्यासियों ने महात्मा गांधी के अहिंसा क्रांन्ति में भी भाग लिया था. अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि और महामंत्री महंत हरि गिरि का कहना है कि आजादी के बाद अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया.



अखाड़ों को मुख्यतः चार भागों में बांटा जा सकता है। जिसमें प्रथम शैव सम्प्रदाय के
सात अखाड़े हैं- आवाहन, जूना, अग्नि, निरंजनी, महानिर्वाणी, अटल व आनन्द. इन अखाड़ों के सन्यासी शिव भक्त होते हैं. दूसरे वैष्णव अखाड़े हैं जो विष्णु, राम व कृष्ण के पुजारी हैं. 
इनमें श्री पंचायती दिगम्बर अनी, श्री पंच निर्वाणी अनी व निर्मोही अनी श्री पंच अखाड़ा है. तीसरी श्रेणी में उदासीन अखाड़े आते हैं जिनमें श्री पंचायती बड़ा उदासीन व श्री पंचायती नया उदासीन अखाड़ा है.
इन अखाड़ों के संत भी राम, कृष्ण व विष्णु को आराध्य मानते हैं। वहीं चौथे प्रकार में श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा आता है. इस तरह वर्तमान में कुल तेरह अखाड़े है.

प्रमुख तेरह अखाड़ों का विवरण
(1) श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा
पहले इसका नाम भैरव अखाड़ा था. इसके इष्टदेव भैरव ही थे. अब इस अखाड़े के इष्टदेव
दत्तात्रेय हैं जो रुद्रावतार माने जाते है. इसकी स्थापना वि.सं. 1202 में उत्तराखण्ड के
कर्णप्रयाग में हुई. इसका मुख्यालय वाराणसी में है. जूना का अर्थ पुराना होता है. इसीलिए
इसे सबसे पुराना अखाड़ा माना जाता है. वर्तमान में सबसे ज्यादा महामंडलेश्वर इसी अखाड़े
से हैं.
(2) श्री पंचदशनाम आवाहन अखाड़ा
इसकी स्थापना सन 547 में हुआ था, इसका केन्द्र दशाश्वमेध घाट काशी (वाराणसी) है.
इसके इष्टदेव गणेशजी व दत्ता़त्रेय हैं. इस अखाड़े में महिला साध्वियों की कोई परम्परा नहीं
है.
(3) श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी
इस अखाड़े की स्थापना सन् 749 में इष्टदेव कपिलजी ने की थी। इसका मुख्यालय दारागंज,
प्रयागराज है। इस अखाड़े के नागा संन्यासी बड़े ही शूरवीर तथा पराक्रमी होते थे। इस अखाड़े ने
1857 की क्रान्ति में पेशवा नाना साहब व महारानी लक्ष्मीबाई को सहयोग प्रदान कर अपने
पराक्रम का परिचय दिया था.
(4) श्री पंच अटल अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना सन 647 में हुई थी। इसके इष्टदेव गणेशजी और इसका केन्द्र काशी
वाराणसी में है. समाज को दीक्षित करना, धर्म के ज्ञान हेतु शास्त्रों व वेदों का ज्ञान देना,
सभ्यता, संस्कार और समता के भाव को फैलाना इस अखाड़े के सन्यासियों का मुख्य उद्देश्य
है.
(5) तपोनिधि श्री आनंद अखाड़ा पंचायती
इस अखाड़े की स्थापना सन् 856 में हुई. जिसके इष्टदेव सूर्यनारायण और कार्यालय नासिक में
है. रूढ़िवादिता, आडम्बर, धार्मिक समरसता को नुकसान पहुंचाने वाली प्रथायें और छुआछूत जैसी
कुरीतियों पर प्रहार करने हेतु इस अखाड़े का उद्भव हुआ है.
(6) श्री पंचायती अखाड़ा निरंजनी
इस अखाड़े की स्थापना सन 904 में हुई थी. इसके इष्टदेव कार्तिकेय हैं और इसका मुख्यालय-
दारागंज, प्रयागराज में है. इस अखाड़े के अधिकतर संन्यासी उच्च शिक्षा प्राप्त हैं. इनमें डॉक्टर,
लॉ एक्सपर्ट, प्रोफेसर, संस्कृत के विद्वान और आचार्य शामिल हैं. इस अखाड़े के कई संतों का
व्याख्यान आईआईटी और आईआईएम में भी होता है.
(7) श्री पंचदशनाम पंच अग्नि अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना सन 1136 हुई थी. इसके इष्टदेव गायत्री माता व मुख्यालय-जूनागढ़
गुजरात में है. इस अखाड़े में सिर्फ ब्राह्मणों को ही दीक्षा दी जाती है. ब्राह्मण होने के साथ
उनका ब्रह्मचारी होना भी आवश्यक है.



(8) श्री दिगम्बर अनी अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना अयोध्या में 15वीं सदी में हुई, इसका मुख्यालय-गुजरात में है। वैष्णव
संप्रदाय के अखाड़ों में इसे राजा कहा जाता है. इस अखाड़े में सबसे ज्यादा करीब 500 खालसा
हैं.
(9) श्री निर्मोही अनी अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना 18वीं शताब्दी में हुआ था. इसका मुख्यालय वृंदावन में है. इसी अखाड़े
ने 1959 में अयोध्या की विवादित भूमि पर अपना मालिकाना हक जताते हुए एक मुकदमा
दायर किया था, तभी से यह चर्चा में है. पुराने समय में इस अखाड़ों के साधुओं को तीरंदाजी
और तलवारबाजी की शिक्षा दिलाई जाती थी.

(10) श्री निर्वाणी अनी अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना-15वीं सदी में हुआ था. इसके इष्टदेव हनुमान हैं. और मुख्यालय
अयोध्या में है. कुश्ती इस अखाड़े के जीवन का एक हिस्सा है। इस अखाड़े के कई संत प्रसिद्ध
पहलवान भी रह चुके हैं.

(11) श्री पंचायती बड़ा उदासीन अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना सन 1025 में हुई थी. इसके इष्टदेव श्री चंद्रदेव और पंचदेव उपासना
पद्धति प्रचलित है. इसका मुख्यालय कीडगंज, प्रयागराज में है. इस अखाड़े का उद्देश्य सेवा
करना है. इस अखाड़े में चार महंत होते हैं, जो कभी सेवानिवृत नहीं होते है.

(12) श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन
इस अखाड़े की स्थापना सन् 1846 हुई थी. जिसके ईष्टदेव श्रीचंद्रदेव, पंचदेव आराधना की भी
परम्परा है. इसका मुख्यालय-हरिद्वार में है. बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ साधुओं ने विभक्त
होकर इसे स्थापित किया था. इस अखाड़े में उन्हीं को नागा बनाया जाता है, जो आठ से 12
साल की उम्र के होते हैं.
(13) श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना सन् 1826 में हुई थी. इसके ईष्टदेव श्री गुरुग्रंथ साहिब हैं, जिसका
मुख्यालय-हरिद्वार में है। इस अखाड़े में धूम्रपान पर पूरी तरह पाबंदी है.

पंचायती राज व्यवस्था का अनोखा प्रयोग
अखाड़ों में लोकतंत्र एवं पंचायती राज व्यवस्था का अनोखा प्रयोग देखने को मिलता है.
दुनिया में शायद ही इतना प्राचीन लोकतन्त्र कहीं और हो. अखाड़ों में रमता पंच व शम्भू पंच
नामक दो प्रमुख पंचायतें (सदन) होती हैं. इनका अपना शासनतन्त्र भी होता है. रमता पंच के
संचालन के लिए श्री महंत, अष्ट कौशल महंत, पुजारी, कोतवाल व कोठारी होते हैं, जबकि
सभापति, सचिव व थानापति शंभू पंच, जिसे बूढ़ा पंच भी कहा जाता है, का संचालन करते हैं.
दोनों पंचायतों के पदाधिकारियों का चुनाव क्रमशः हर तीसरे व छठे वर्ष कुम्भ के अवसर पर
किया जाता है. इनका निर्वाचन व चयन लोकतंत्रीय व्यवस्था के तहत होता है. गुरु-शिष्य
परम्परा के प्रर्याय ये अखाड़े इस प्राचीन व्यवस्था को बाखूबी निभा रहे हैं. इस परम्परा में
शिष्यों के चयन की भी एक प्रक्रिया है, जिसे पूरा किये बगैर कोई भी अखाड़े में प्रवेश नहीं कर
सकता.

अखाड़ों के लोकतंत्रीय व्यवस्था का स्वरूप कुम्भपर्व पर भी परिलक्षित होता है. जिस
तरह आज के राज्य गणतंत्र दिवस पर सांस्कृतिक प्रदर्शनी के साथ-साथ अपनी सैन्य शक्ति का
भी प्रदर्शन करते हैं, उसी तरह संन्यासी अखाड़े भी कुम्भपर्व पर अपने पराक्रम का भरपूर प्रदर्शन
करते हैं, जिनका अवलोकन पेशवाई, शाही स्नान व इनकी छावनी की गतिविधियों में दिखाई
पड़ता है। इसीलिए कुम्भ व अर्धकुम्भ को ये अपना महापर्व कहते हैं.

कुंभ के बाद क्या करते अखाड़े
कुम्भ पर्व के बाद भी अखाड़ों की होने वाली गतिविधियां कम रोचक नहीं हैं. इनका
रमता पंच एक कुम्भ समाप्त होने के बाद अगले कुम्भ के लिए रवाना हो जाता है. उदाहरण के
तौर पर वर्ष 2016 में उज्जैन कुम्भ व्यतीत करने के बाद अखाड़ों का रमता पंच देशाटन के
लिए निकल पड़ा और भ्रमण करते हुए प्रयाग अर्द्धकुम्भ 2019, जिसे प्रदेश सरकार ने पूर्ण
कुम्भ की संज्ञा दी है, के शुरू होने के कुछ समय पहले ही पूरे लाव-लश्कर के साथ प्रयागराज
नगर में प्रवेश किया.
दूसरी तरफ शंभू पंच के संन्यासी इस दौरान धर्म का प्रचार और सामाजिक कार्य करते हैं. ये शैक्षणिक संस्थान भी संचालित करते हैं. यही नहीं, प्राकृतिक आपदा के समय ये संन्यासी जनसेवा का कार्य भी करते हैं. साथ ही गरीबों व असहायों की मदद को भी आगे आते हैं.

No comments:

Post a Comment

सबसे पवित्र मास होता है सावन, काशी विश्वनाथ के दर्शन करने से मिलता है मोक्ष

बोल बम के जयघोष के साथ सभी भक्त मां गंगा में स्नान करके जलकलश भरकर बाबा भोलेनाथ को अर्पण करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं. काशी के का...