Monday 26 June 2017

जगन्नाथ यात्रा की पूरी कहानी.. गरीबों के देवता को नमन..


पूर्व भारतीय उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। श्री जगन्नाथ जी पूर्ण परात्पर भगवान है और श्रीकृष्ण उनकी कला का एक रूप है। ऐसी मान्यता श्री चैतन्य महाप्रभु के शिष्य पंच सखाओं की है।
पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।
पर्यटन और धार्मिक महत्व
यहाँ की मूर्ति, स्थापत्य कला और समुद्र का मनोरम किनारा पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है। कोणार्क का अद्भुत सूर्य मन्दिर, भगवान बुद्ध की अनुपम मूर्तियों से सजा धौल-गिरि और उदय-गिरि की गुफ़ाएँ, जैन मुनियों की तपस्थली खंड-गिरि की गुफ़ाएँ, लिंग-राज, साक्षी गोपाल और भगवान जगन्नाथ के मन्दिर दर्शनीय है। पुरी और चन्द्रभागा का मनोरम समुद्री किनारा, चन्दन तालाब, जनकपुर और नन्दनकानन अभयारण्य बड़ा ही मनोरम और दर्शनीय है। शास्त्रों और पुराणों में भी रथ-यात्रा की महत्ता को स्वीकार किया गया है। स्कन्द पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करते हुए, प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाते हैं वे सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं। जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा को आते हुए करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता के बीच आते हैं और उनके सुख दुख में सहभागी होते हैं। सब मनिसा मोर परजा (सब मनुष्य मेरी प्रजा है), ये उनके उद्गार है। भगवान जगन्नाथ तो पुरुषोत्तम हैं। उनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध, महायान का शून्य और अद्वैत का ब्रह्म समाहित है। उनके अनेक नाम है, वे पतित पावन हैं।
महाप्रसाद का गौरव
रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुण ध्वज पर या नन्दीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ ६५ फीट लंबा, ६५ फीट चौड़ा और ४५ फीट ऊँचा है। इसमें ७ फीट व्यास के १७ पहिये लगे हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी का रथ को देवलन जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे हैं। सन्ध्या तक ये तीनों ही रथ मन्दिर में जा पहुँचते हैं। अगले दिन भगवान रथ से उतर कर मन्दिर में प्रवेश करते हैं और सात दिन वहीं रहते हैं। गुंडीचा मन्दिर में इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु बल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु बल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मन्दिर में ही किसी ने प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है।
जनकपुर मौसी का घर
जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं। विभिन्न धर्मो और मतों के भक्तों को समान रूप से दर्शन देकर तृप्त करते हैं। इस समय उनका व्यवहार सामान्य मनुष्यों जैसा होता है। यह स्थान जगन्नाथ जी की मौसी का है। मौसी के घर अच्छे-अच्छे पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। तब यहाँ पथ्य का भोग लगाया जाता है जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते यहाँ आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज़ होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी का एक मुहल्ला जहाँ लक्ष्मी जी का मन्दिर है, वहाँ लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा माँगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन में एक ओर द्वैतापति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में संवाद बोलते हैं तो दूसरी ओर देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करती है। लोगों की अपार भीड़ इस मान-मनौव्वल के संवाद को सुनकर खुशी से झूम उठती हैं। सारा आकाश जै श्री जगन्नाथ के नारों से गूँज उठता है। लक्ष्मी जी को भगवान जगन्नाथ के द्वारा मना लिए जाने को विजय का प्रतीक मानकर इस दिन को विजयादशमी और वापसी को बोहतड़ी गोंचा कहा जाता है। रथयात्रा में पारम्परिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भूत समन्वय देखने को मिलता है।
देवर्षि नारद को वरदान
श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा में भगवान श्री कृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी नहीं होतीं बल्कि बलराम और सुभद्रा होते हैं। उसकी कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है - द्वारिका में श्री कृष्ण रुक्मिणी आदि राज महिषियों के साथ शयन करते हुए एक रात निद्रा में अचानक राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं होने दिया, लेकिन रुक्मिणी ने अन्य रानियों से वार्ता की कि, सुनते हैं वृन्दावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु ने हम सबकी इतनी सेवा निष्ठा भक्ति के बाद भी नहीं भुलाया है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रहस्यात्मक रास लीलाओं के बारे में माता रोहिणी भली प्रकार जानती थीं। उनसे जानकारी प्राप्त करने के लिए सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की। पहले तो माता रोहिणी ने टालना चाहा लेकिन महारानियों के हठ करने पर कहा, ठीक है। सुनो, सुभद्रा को पहले पहरे पर बिठा दो, कोई अंदर न आने पाए, भले ही बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों।
माता रोहिणी के कथा शुरू करते ही श्री कृष्ण और बलरम अचानक अन्त:पुर की ओर आते दिखाई दिए। सुभद्रा ने उचित कारण बता कर द्वार पर ही रोक लिया। अन्त:पुर से श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की वार्ता श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनने से श्रीकृष्ण और बलराम के अंग अंग में अद्भुत प्रेम रस का उद्भव होने लगा। साथ ही सुभद्रा भी भाव विह्वल होने लगीं। तीनों की ही ऐसी अवस्था हो गई कि पूरे ध्यान से देखने पर भी किसी के भी हाथ-पैर आदि स्पष्ट नहीं दिखते थे। सुदर्शन चक्र विगलित हो गया। उसने लंबा-सा आकार ग्रहण कर लिया। यह माता राधिका के महाभाव का गौरवपूर्ण दृश्य था।
अचानक नारद के आगमन से वे तीनों पूर्व वत हो गए। नारद ने ही श्री भगवान से प्रार्थना की कि हे भगवान आप चारों के जिस महाभाव में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्य जनों के दर्शन हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। महाप्रभु ने तथास्तु कह दिया।

रथ यात्रा का प्रारंभ
कहते हैं कि राजा इन्द्रद्युम्न, जो सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहते थे, को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते ही वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया। आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मन्दिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिली।
महाराजा और महारानी दुखी हो उठे। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, 'व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।' आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ पुरुषोत्तम पुरी की रथयात्रा और मन्दिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। रथयात्रा माता सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर करवाई थी। माता सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है।
पृष्ठभूमि में स्थित दर्शन और इतिहास
कल्पना और किंवदंतियों में जगन्नाथ पुरी का इतिहास अनूठा है। आज भी रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन भी हैं और बुद्ध भी। अनेक कथाओं और विश्वासों और अनुमानों से यह सिद्ध होता है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भूत समन्वय है। जगन्नाथ मन्दिर में पूजा पाठ, दैनिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन यहाँ तक तांत्रिकों ने भी प्रभावित किया है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मन्दिर में अशोक स्तम्भ को शिव लिंग का रूप देने की कोशिश की गई है। इसी प्रकार भुवनेश्वर के ही मुक्तेश्वर और सिद्धेश्वर मन्दिर की दीवारों में शिव मूर्तियों के साथ राम, कृष्ण और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं। यहाँ जैन और बुद्ध की भी मूर्तियाँ हैं पुरी का जगन्नाथ मन्दिर तो धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण है। मन्दिर कि पीछे विमला देवी की मूर्ति है जहाँ पशुओं की बलि दी जाती है, वहीं मन्दिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियों चौंकाने वाली है। यहाँ तांत्रिकों के प्रभाव के जीवंत साक्ष्य भी हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के २४ तत्वों के ऊपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्व, पाँच तंत्र माताएँ, दस इन्द्रियों और मन के प्रतीक हैं। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।
सम्पूर्ण भारत में वर्षभर होने वाले प्रमुख पर्वों होली, दीपावली, दशहरा, रक्षा बंधन, ईद, क्रिसमस, वैशाखी की ही तरह पुरी का रथयात्रा का पर्व भी महत्त्वपूर्ण है। पुरी का प्रधान पर्व होते हुए भी यह रथयात्रा पर्व पूरे भारतवर्ष में लगभग सभी नगरों में श्रद्धा और प्रेम के साथ मनाया जाता है। जो लोग पुरी की रथयात्रा में नहीं सम्मिलित हो पाते वे अपने नगर की रथयात्रा में अवश्य शामिल होते हैं। रथयात्रा के इस महोत्सव में जो सांस्कृतिक और पौराणिक दृश्य उपस्थित होता है उसे प्राय: सभी देशवासी सौहार्द्र, भाई-चारे और एकता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मन्दिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद प्राप्त करते हैं उससे वसुधैव कुटुंबकम का महत्व स्वत: परिलक्षित होता है। उत्साहपूर्वक श्री जगन्नाथ जी का रथ खींचकर लोग अपने आपको धन्य समझते हैं। श्री जगन्नाथपुरी की यह रथयात्रा सांस्कृतिक एकता तथा सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखी जाती है।

आपातकाल (भारत) 25 june 1975 - 21 march 1977


प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, जिन्होंने भारत के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करवाई।
26 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान चलाया गया। जयप्रकाश नारायण ने इसे 'भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि' कहा था।

परिचय
इंदिरा गांधी का उदय
1967 और 1971 के बीच, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सरकार और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के साथ ही संसद में भारी बहुमत को अपने नियंत्रण में कर लिया था। केंद्रीय मंत्रिमंडल की बजाय, प्रधानमंत्री के सचिवालय के भीतर ही केंद्र सरकार की शक्ति को केंद्रित किया गया। सचिवालय के निर्वाचित सदस्यों को उन्होंने एक खतरा के रूप में देखा। इसके लिए वह अपने प्रधान सचिव पीएन हक्सर, जो इंदिरा के सलाहकारों की अंदरुनी घेरे में आते थे, पर भरोसा किया। इसके अलावा, हक्सर ने सत्तारूढ़ पार्टी की विचारधारा "प्रतिबद्ध नौकरशाही" के विचार को बढ़ावा दिया।
इंदिरा गांधी ने चतुराई से अपने प्रतिद्वंदियों को अलग कर दिया जिस कारण कांग्रेस विभाजित हो गयी और 1969-में दो भागों , कांग्रेस (ओ) ("सिंडीकेट" के रूप में जाना जाता है जिसमें पुराने गार्ड शामिल हैं) व कांग्रेस (आर) जो इंदिरा की ओर थी, भागों में बट गयी। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और कांग्रेस सांसदों के एक बड़े भाग ने प्रधानमंत्री का साथ दिया। इंदिरा गांधी की पार्टी पुरानी कांग्रेस से ज्यादा ताकतवर व आंतरिक लोकतंत्र की परंपराओं के साथ एक मजबूत संस्था थी। दूसरी और कांग्रेस (आर) के सदस्यों को जल्दी ही समझ में आ गया कि उनकी प्रगति इंदिरा गांधी और उनके परिवार के लिए अपनी वफादारी दिखने पर पूरी तरह निर्भर करती है और चाटुकारिता का दिखावटी प्रदर्शित करना उनकी दिनचर्या बन गया। आने वाले वर्षों में इंदिरा का प्रभाव इतना बढ़ गया कि वह कांग्रेस विधायक दल द्वारा निर्वाचित सदस्यों की बजाय, राज्यों के मुख्यमंत्रियों के रूप में स्वयं चुने गए वफादारों को स्थापित कर सकती थीं।

इंदिरा की उस सरकार के पास जनता के बीच उनकी करिश्माई अपील का समर्थन प्राप्त था। इसकी एक और कारण सरकार द्वारा लिए गए फैसले भी थे।इसमें जुलाई 1969 में प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण व सितम्बर 1970 में राजभत्ते(प्रिवी पर्स) से उन्मूलन शामिल हैं; ये फैसले अपने विरोधियों को सार्वभौमिक झटका देने के लिए, अध्यादेश के माध्यम से अचानक किये गए थे। इसके बाद, सिंडीकेट और अन्य विरोधियों के विपरीत, इंदिरा को "गरीब समर्थक , धर्म के मामलों में, अर्थशास्त्र और धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद के साथ पूरे देश के विकास के लिए खड़ी एक छवि के रूप में देखा गया।"[1][2] प्रधानमंत्री को विशेष रूप से वंचित वर्गों-गरीब, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों द्वारा बहुत समर्थन मिला। उनके लिए, वह उनकी इंदिरा अम्मा थीं।
1971 के आम चुनावों में, "गरीबी हटाओ" का इंदिरा का लोकलुभावन नारा लोगों को इतना पसंद आया कि पुरस्कार स्वरुप उन्हें एक विशाल बहुमत (518 से बाहर 352 सीटें) से जीता दिया। " जीत के इतने बड़े अंतर के सम्बन्ध में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने बाद में लिखा था कि "कांग्रेस (आर) असली कांग्रेस के रूप में खड़ी है इसे योग्यता प्रदर्शित करने के लिए किसी प्रत्यय की आवश्यकता नहीं है।"

दिसंबर 1971 में, इनके सक्रिय युद्ध नेतृत्व में भारत ने पूर्व में पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) को अपने कट्टर दुश्मन पाकिस्तान से स्वतंत्रता दिलवाई। अगले महीने ही उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया, वह उस समय अपने चरम पर थीं; उनकी जीवनी लेखक इंदर मल्होत्रा, के लिए 'भारत की साम्राज्ञी' के रूप में उनका वर्णन" उपयुक्त लग रहा था। नियमित रूप से एक तानाशाह होने का और एक व्यक्तित्व पंथ को बढ़ावा देने का आरोप लगाने वाले विपक्षी नेताओं ने भी उन्हें दुर्गा सामान माना।
1975 की तपती गर्मी के दौरान अचानक भारतीय राजनीति में भी बेचैनी दिखी। यह सब हुआ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले से जिसमें इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाया गया और उन पर छह वर्षों तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन इंदिरा गांधी ने इस फ़ैसले को मानने से इनकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की घोषणा की और 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी गई।
आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, "जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी।"
आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा क़ानून (मीसा) के तहत राजनीतिक विरोधियों की गिरफ़्तारी की गई, इनमें जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फ़र्नांडिस और अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल थे।

मामला
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राज नारायण
मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें उन्होंने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। उनकी दलील थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया, तय सीमा से अधिक खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए ग़लत तरीकों का इस्तेमाल किय। अदालत ने इन आरोपों को सही ठहराया। इसके बावजूद इंदिरा गांधी टस से मस नहीं हुईं। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा कि इंदिरा का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है।

पहली गैर-कांग्रेसी सरकार
मोरारजी देसाई : प्रथम गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री (1977–1979)
आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद विरोध की लहर तेज़ होती देख प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। ख़ुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 पर सिमट गई और 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली। नई सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए फ़ैसलों की जाँच के लिए शाह आयोग गठित की गई। हालाँकि नई सरकार दो साल ही टिक पाई और अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण १९७९ में सरकार गिर गई। उप प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कुछ मंत्रियों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया जो जनसंघ के भी सदस्य थे। इसी मुद्दे पर चरण सिंह ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने सरकार बनाई लेकिन चली सिर्फ़ पाँच महीने. उनके नाम कभी संसद नहीं जाने वाले प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड दर्ज हो गया।

घटनाक्रम
1975
12 जून 1975 को इंदिरा गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दोषी पाया और छह साल के लिए पद से बेदखल कर दिया। इंदिरा गांधी पर वोटरों को घूस देना, सरकारी मशनरी का गलत इस्तेमाल, सरकारी संसाधनों का गलत इस्तेमाल जैसे 14 आरोप लगे थे। राज नारायण ने 1971 में रायबरेली में इंदिरा गांधी के हाथों हारने के बाद मामला दाखिल कराया था। जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा ने यह फैसला सुनाया था।
24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश बरकरार रखा, लेकिन इंदिरा को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दी।
25 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा के इस्तीफा देने तक देश भर में रोज प्रदर्शन करने का आह्वाहन किया।
25 जून 1975 को राष्ट्रपति के अध्यादेश पास करने के बाद सरकार ने आपातकाल लागू कर दिया।

Monday 12 June 2017

भारतीय इतिहास

भारत के भाव ने हमेशा से ही अपने रहस्य से विश्व को मोहित किया है। यह एक ऐसा उपमहाद्वीप है जिसका इतिहास 5,000 साल पुराना है। विविधता में एकता वाली सभ्यता की विशेषता वाला भारत हमेशा से ही ऐसे देश के रुप में जाना जाता है जिसका इतिहास उसके कण में गूंजता है। 

भारत की पहली मुख्य सभ्यता 2,500 ई.पू. के लगभग सिंधु नदी घाटी में विकसित हुई, जिसका एक बड़ा हिस्सा आज भी वर्तमान भारत में है। यह सभ्यता जो कि 1,000 साल तक रही उसे हड़प्पा संस्कृति के नाम से जाना जाता है। यह हजारों साल तक रही आबादी का चरमबिन्दु था। लगभग 1,500 ई.पू. से अफगानिस्तान और मध्य एशिया से आर्य जनजातियां उत्तर पश्चिम भारत में आने लगीं। उनकी सामरिक श्रेष्ठता के बावजूद उनकी प्रगति धीमी थी। अंततः यह जनजातियां पूरे उत्तर भारत से विंध्य पर्वतों तक शासन करने में सफल हुईं और मूल निवासी जो कि द्रविड़ थे उन्हें दक्षिण भारत में धकेल दिया गया। सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व में यह आर्य जनजातियां लगभग पूरे गंगा के मैदानों में फैल गईं और उनमें से कई 16 प्रमुख राज्यों में बंट गईं। समय के साथ यह चार बड़े राज्यों में बदल गईं और कौशल और मगध पांचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के सबसे ताकतवर राज्य थे। 364 ईसा पूर्व में नंदा साम्राज्य का उत्तर भारत में बहुत प्रभुत्व रहा। हालांकि इस दौरान उत्तर भारत ने पश्चिम के दो हमलों को विफल किया। इनमें पहला फारसी राजा दारा, 521-486 ईसा पूर्व, और दूसरा महान सिकंदर द्वारा किया गया था, जो ग्रीस से भारत में 326 ईसा पूर्व में आया।
 


मौर्य पहले शासक थे जिन्होंने उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से और दक्षिण भारत के कुछ हिस्से पर, एक प्रदेश के तौर पर राज किया। अर्थशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ के लेखक कौटिल्य के मार्गदर्शन में चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक उच्च केंद्रीयकृत प्रशासन स्थापित किया। अशोक के शासन में यह साम्राज्य अपने चरम पर पहुंचा। अशोक के द्वारा बनवाए स्तंभ, पत्थरों पर गढ़वाए गए शिलालेख पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैले हैं और उनके विशाल साम्राज्य की गाथा गाते हैं। यह आज भी दिल्ली, गुजरात, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश में सारनाथ और मध्य प्रदेश में सांची में मौजूद हैं। 232 ईसा पूर्व में अशोक की मौत के बाद इस राज्य का तेजी से पतन हुआ और 184 ईसा पूर्व में यह पूरी तरह खत्म हो गया। 


मौर्य के पतन के बाद उत्तर भारत में कई साम्राज्यों का उदय और पतन हुआ। अगला उल्लेखनीय राजवंश गुप्त का रहा। हालांकि गुप्त राजवंश मौर्य जितना बड़ा नहीं था लेकिन उसने उत्तर भारत को राजनीतिक तौर पर एक सदी से ज्यादा यानि 335 ई से 455 ई तक एकजुट रखा। 

मौर्य राजवंश के पतन के बाद मध्य और दक्षिण भारत में कई शक्तिशाली राजवंश आए, जिनमें सातवाहन, कलिंग और वकटका प्रमुख थे। बाद में इस क्षेत्र ने कुछ महान साम्राज्य देखे, जैसे चोल, पंड्या, चेरा, चालुक्य और पल्लव।

उत्तर भारत में गुप्त के पतन के साथ ही बड़ी लेकिन प्रभावहीन क्षेत्रीय ताकतों की संख्या बढ़ने लगी जिससे नौवीं शताब्दी ईस्वी में राजनीतिक स्थिति बहुत अस्थिर हो गई। इससे पहले ग्यारवीं शताब्दी में मुगलों के आक्रमण का रास्ता बन गया। यह महमूद गौरी द्वारा सन् 1001 से सन् 1025 में किए गए लगातार सत्रह हमलों से पता चलता है। इन हमलों से उत्तर भारत का शक्ति संतुलन बिखर गया और बाद के आक्रमणकारी इस क्षेत्र पर विजय पाने में सफल रहे। हालांकि अगले मुस्लिम हमलावर शासक ने सही मायनो में भारत में विदेशी शासन की स्थापना की। महमूद गौरी ने भारत पर हमला किया और स्थानीय शासक उससे लड़ने में असफल रहे और इस तरह भारत में सफलतापूर्वक विदेशी शासन स्थापित हुआ। उसके शासनकाल में भारत का एक बड़़ा हिस्सा उसके कब्जे में आया और उसका उत्तराधिकारी कुतुब-उद-ऐबक दिल्ली का पहला सुल्तान बना। उसके बाद खिलजी और तुगलक का शासन आया जिसे दिल्ली सल्तनत का शासक कहा गया। इसने उत्तर भारत के बड़े हिस्से और दक्षिण भारत के कुछ हिस्से पर राज किया। इसके बाद लोधी और सैयादी के बाद मुगलों ने भारतीय इतिहास का सबसे जीवंत युग स्थापित किया।

बाबर, हुमायुं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब मुगल साम्राज्य के कुछ प्रमुख शासक थे। हालांकि मुगलों के सुनहरे दिन अपेक्षाकृत रुप से कम थे पर उनका राज्य बहुत विशाल था और उसमें लगभग पूरा भारतीय उपमहाद्वीप आता था। उसका महत्व सिर्फ उसके आकार में ही नहीं था। मुगल राजाओं ने कला और साहित्य के सुनहरे युग का संचालन किया और इमारतों को लेकर उनके जुनून के कारण भारत में कुछ महान वास्तुकला के नमूने मौजूद हैं। खासकर आगरा में शाहजहां का बनवाया हुआ ताजमहल विश्व के आश्चर्यों में से एक है। इसके अलावा कई किले, महल, दरवाजे, इमारतें, मस्जिदें, बावड़ी, उद्यान आदि भारत में मुगलों की सांस्कृतिक विरासत है। भारत में सबसे कुशल प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करने में भी मुगलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सबसे उल्लेखनीय उनका राजस्व प्रशासन था जिसकी विशेषताएं आज भी भारत के राजस्व और भूमि सुधार कानूनों में दिखती हैं। 


मुगलों के पतन के साथ ही पश्चिमी भारत में मराठों का उदय हुआ। भारत के अन्य भागों में नए प्रकार का विदेशी आक्रमण देखा गया जो कि व्यापार की आड़ में 15वीं शताब्दी ईस्वी से शुरु हुआ। इसमें पहला 1498 और 1510 ईस्वी के बीच वास्को दा गामा की अगुवाई में पुर्तगालियों का आगमन और धीरे धीरे अधिग्रहण था और दूसरा ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा गुजरात के सूरत में अपनी पहली व्यापारिक पोस्ट स्थापित करना था। 


भारत में केवल अंग्रेज और पुर्तगाली ही नहीं थे जो कि यूरोप से आए थे़। डेन और डच की भी यहां व्यापार चैकी थी और 1672 ईस्वी में फ्रेंच आए, जिन्होंने स्वयं को पोंडीचेरी में स्थापित किया और अंगेजों के जाने के बाद भी वे यहीं जमे रहे। ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधित्व वाले अंग्रजों ने भारत के बड़े हिस्से पर वाणिज्यिक नियंत्रण स्थापित किया और बहुत जल्द उसे प्रशासनिक आयाम भी दे दिया। 1857 के सुधारों के बाद भारत में औपचारिक तौर पर अंग्रेजों का शासन स्थापित हो गया। 

तब से ही भारत का इतिहास अलग अलग नाम, विचारधारा, पृष्ठभूमि और तरीकों वाले राष्ट्रवादियों और अंग्रेजों और उनकी नीतियों के बीच लगातार संघर्ष वाला रहा। 

Tuesday 6 June 2017

जन गण मन का अर्थ

जन गण मन



जन गण मन अधिनायक जय हे 

भारत भाग्य विधाता 

पंजाब सिन्ध गुजरात मराठा

द्राविड़ उत्कल बंग 

विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा 

उच्छल जलधि तरंग 

तव शुभ नामे जागे 

तव शुभ आशिष मागे 

गाहे तव जय गाथा 

जन गण मंगल दायक जय हे 

भारत भाग्य विधाता 

जय हे जय हे जय हे 

जय जय जय जय हे... भारत माता की जय


भारत के राष्ट्रगान जन गण मन का अर्थ 



राष्ट्रगान का अर्थ इस प्रकार है:- “सभी लोगों के मस्तिष्क के शासक, कला तुम हो, भारत की किस्मत बनाने वाले [ये पंक्ति भारत के नागरिकों को समर्पित है, क्युकी लोकतंत्र में नागरिक ही वास्तविक स्वामी होता है] [ अगली पंक्तिया भारत देश की भूमि को नमन करते हुए है ] तुम्हारा नाम पंजाब, सिन्ध, गुजरात और मराठों के दिलों के साथ ही बंगाल, ओड़िसा, और द्रविड़ों को भी उत्तेजित करता है, इसकी गूँज विन्ध्य और हिमालय के पहाड़ों में सुनाई देती है, गंगा और जमुना के संगीत में मिलती है और भारतीय समुद्र की लहरों द्वारा गुणगान किया जाता है। वो तुम्हारे आर्शीवाद के लिये प्रार्थना करते है और तुम्हारी प्रशंसा के गीत गाते है। [अगली पंक्तिया देश के सैनिकों और किसानों को समर्पित है ] तुम ही समस्त प्राणियों को सुरक्षा एवं मंगल जीवन प्रदान करने वाले हो, और तुम ही भारत के वास्तिविक भाग्य विधाता हो जय हो जय हो जय हो तुम्हारी। आप सभी से मिलकर ये राष्ट्र बना है, अतः आप सबकी जय जय जय जय हे" 

भारत के राष्ट्रगान का इतिहास 


रबिन्द्रनाथ टैगोर द्वारा 'जन गन मन अधिनायक' को पहले बंगाली में लिखा गया था, और इसका हिन्दी संस्करण संविधान सभा द्वारा 24 जनवरी 1950 को स्वीकार किया गया। 1911 में टैगोर ने इस गीत और संगीत को रचा था और इसको पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कलकत्ता मीटिंग में 27 दिसंबर 1911 में गाया गया था। इस गीत के एक संस्करण का बंगाली से अंग्रेजी में अनुवादित किया गया और तब इसका संगीत मदनापल्लै में सजाया गया जो कि आंध्रप्रदेश के चित्तुर जिले में है। भारत के राष्ट गान को गाने के लिए निर्धारित समय ५२ सेकण्ड है, और इस समय सभी जन सावधान की मुद्रा में भारतीय ध्वज की तरफ उन्मुख होते है 
अंतिम संशोधन : जुलाई 15, 2016 

Saturday 3 June 2017

विभिन्न समुदायों की भूमि भारत


भारत सदा ही बड़ी और विविध आबादी वाला रहा है, जिससे सदियों से इसका चरित्र जीवंत बना रहा। भारत में लगभग 3,000 समुदाय हैं। भारत की आबादी का मिश्रण इतना व्यापक और जटिल है कि इसके दो तिहाई समुदाय हर राज्य की भौगोलिक सीमा पर मिल जाते हैं। इनमें काॅसोकोइड, नेगरिटो, प्रोटो-आॅस्ट्रोलाॅइड, माॅन्गोलाइड और मेडीटेरेनीयन नस्लों का भी मेल है। 

भारत की आबादी का आठ प्रतिशत हिस्सा आदिवासी है। शारीरिक गठन और भाषा के आधार पर भारत के लोगों को आसानी से चार व्यापक वर्गों में बांटा जा सकता है। पहला उच्च वर्ग के हिंदुओं का बहुमत है, जो उत्तर भारत में रहते हैं और उनकी भाषा संस्कृत से ली गई है। दूसरा, वो लोग जो भारत के दक्षिण में रहते हैं और उनकी भाषा तमिल, तेलगु, कन्नड़ और मलयालम है, जो संस्कृत से बिलकुल भिन्न है। उन्हें उनके जातीय नाम ‘द्रविड़’ से जाना जाता है। तीसरा, भारत के जंगल और पर्वतों में रहने वाली प्राचीन जनजातियां, जिनका जिक्र उपर बताई गई भारत की आठ प्रतिशत आबादी में था। इस वर्ग में कोल, भील और मुडा आते हैं। चैथे हैं वो लोग जिनकी मुखाकृति पर अत्याधिक मंगोलियन प्रभाव है और यह उत्तरपूर्वी राज्यों और हिमालय की ढलान पर रहते हैं।

 

इन सबको जोड़ें तो भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहां बीस धार्मिक धाराएं साथ बहती हैं। अगर आपको यह बात सुनने में पुरानी लगती है तो आपके लिए एक आश्चर्यजनक जानकारी भी है। भारत के लगभग 500 समुदाय कहते हैं कि वो एक समय में दो धर्मों का पालन करते हैं। भारत की आबादी एक अरब से ज्यादा है जिसमें ज्यादातर हिंदू हैं। 

कोई आश्चर्य नहीं है कि दुनिया भर में आज भारत को ‘कई धर्मों की भूमि’ कहा जाता है। प्राचीन भारत ने हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म का जन्म देखा। यह सभी धर्म और संस्कृतियां कुछ इस प्रकार मिली कि भले ही सबकी भाषा, सामाजिक तौर तरीके, धर्म अलग अलग हों लेकिन पूरे देश की जीवन शैली में समानता है। भारत इस तरह इतना भिन्न होकर भी गहरी एकता दिखाता है।
 


हिंदू धर्म, यह नाम सिंधु नदी के किनारे रहने वाले लोगों को दिया गया। यह क्षेत्र उत्तर पश्चिम से भारत आए आक्रमणकारियों के अधिकार में कई सदियों तक रहा। 

हालांकि हिंदू धर्म वास्तव में कोई धर्म नहीं बल्कि एक दर्शन या जीवन यापन का तरीका है जो कि भारतीय उपमहाद्वीप में सदियों में विकसित हुआ। वैदिक काल के ऐसे बहुत से ग्रंथ हैं जिनमें बुनियादी सत्य और कुछ सिद्धांत बनाए गए हैं, लेकिन हिंदू धर्म में ऐसे कोई सिद्धांत नहीं तय किये गए, बल्कि एक सामान्य सिद्धांत है सहिष्णुता का। इसलिए पूर्व और पश्चिम से पहाड़ों या समुद्र के रास्ते भारत आए विभिन्न नस्लों, भाषाओं या धर्मों के असंख्य लोग अपने साथ अपनी विचारधारा, परंपरा और भाषा भारत ले आए और यहां अपने अनुसार अपना जीवन जीते रहे। 

Friday 2 June 2017

भारत में धर्म


भारत एक ऐसा देश है जो विविधता में एकता की विचारधारा में विश्वास रखता है। यहां कई धर्म, संस्कृतियां, परंपराएं, जातीय मूल्य और रिवाज़ मौजूद हैं। भारत की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी हिंदू धर्म की है। भारत के अन्य मुख्य धर्म सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध और इस्लाम हैं। 

यहां बड़ी संख्या में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च और मठ हैं जिनका विभिन्न धर्मों के लोग दौरा करते हैं। यह वो धार्मिक स्थान हैं जहां भौतिक दुनिया का मेल आध्यात्मिक दुनिया से होता है और मन दिव्य पवित्रता और आध्यात्मिकता से भर जाता है। भारत ‘आस्था की भूमि’ है जिसकी आध्यात्मिक हवा में कर्म, धर्म और क्षमा की खूशबू है। धर्मनिरपेक्ष भारत सर्वधर्म समभाव के दर्शन में विश्वास रखता है जिसका मतलब होता है सभी धर्मों के लिए समानता और आदर। यहां धार्मिक स्थान किसी एक राज्य या क्षेत्र तक सीमित नहीं हैं बल्कि पूरे देश में फैले हैं। 

धर्म और मान्यता के आधार पर वर्गीकृत कुछ धार्मिक स्थान इस प्रकार हैं.

हिंदू धर्म 

चार धाम: किसी हिंदू के लिए चार धाम यात्रा संपूर्ण तीर्थ है। इसमें चार तीर्थ चार अलग अलग दिशाओं में स्थित हैं।
बद्रीनाथ मंदिर - उत्तराखंड में स्थित यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है।
जगन्नाथ मंदिर - ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ का यह मंदिर स्थित है। यह हर साल होने वाली रथ यात्रा के लिए लोकप्रिय है।
रामेश्वरम मंदिर - दक्षिण के रामेश्वरम में स्थित यह भगवान शिव का मंदिर है।
द्वारकाधीश मंदिर - गुजरात के द्वारका में स्थित यह मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है।

हिमालय में उत्तराखंड एक तीर्थयात्रा सर्किट है जिसे छोटा चार धाम कहा जाता है - बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री।

अमरनाथ: जम्मू कश्मीर स्थित पवित्र तीर्थ अमरनाथ, भगवान शिव को समर्पित है। हर साल अमरनाथ गुफा की यात्रा आयोजित होती है जिससे बर्फ से बने शिवलिंग की पूजा की जा सके।

वैष्णो देवी: जम्मू कश्मीर के त्रिकुटा पर्वत में स्थित यह मंदिर मां वैष्णों को समर्पित है। यहां प्राकृतिक रुप से बनी तीन चट््टानी संरचनाओं, जिन्हें पिंडी कहा जाता है, की पूजा की जाती है। 

कामाख्या मंदिर: असम के गुवाहाटी में स्थित यह सबसे प्राचीन शक्ति पीठ है जो देवी कामाख्या को समर्पित है। इस मंदिर में लगने वाले सालाना अंबूबची मेले में हजारों तंत्र श्रद्धालु आते हैं। 

तिरुमला वेंकटेश्वर मंदिर: तिरुपति स्थित यह मंदिर भगवान वेंकेटेश्वर को समर्पित है जिन्हें बालाजी, श्रीनिवासा और गोविंदा जैसे अलग अलग नामों से भी जाना जाता है।
 

सिद्धिविनायक मंदिर: भगवान गणेश का यह मंदिर मुंबई का सबसे लोकप्रिय मंदिर है। आम जनता के अलावा राजनेताओं और बाॅलीवुड हस्तियों के यहां दौरा करने के कारण यह मंदिर बहुत लोकप्रिय है।

शिर्डी सांई मंदिर: महाराष्ट्र के शिर्डी में शिर्डी सांई बाबा का पवित्र स्थल मौजूद है। हर साल यहां बड़ी संख्या में भक्त दर्शन करने के लिए आते हैं। यह मंदिर लगभग 200 वर्ग मीटर के इलाके में फैला है।

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग: गुजरात स्थित यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और हिंदू तीर्थ यात्रियों के लिए आध्यामिकता और देवत्य का स्रोत है। देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में यह पहला ज्योतिर्लिंग है।

मीनाक्षी अम्मन मंदिर: मदुरै का मीनाक्षी अम्मन मंदिर देवी पार्वती को समर्पित है। देवी पार्वती को मीनाक्षी के नाम से भी जाना जाता है।

ब्रह्मा मंदिर: पुष्कर में ब्रह्मा मंदिर दुनिया का एकमात्र मंदिर है जो भगवान ब्रह्मा को समर्पित है। माना जाता है कि यह मंदिर करीब 2000 साल पुराना है।

सबरीमला श्री धर्म संस्था मंदिर: भगवान अयप्पा का यह मंदिर केरल का सबसे लोकप्रिय मंदिर है। यह भारत का एकमात्र मंदिर है जिसमें सभी धर्मों और आस्था के लोगों को जाने की इजाज़त है।

कुमारी अम्मन मंदिर: यह कन्याकुमारी का सबसे लोकप्रिय मंदिर है जो देवी कुमारी अम्मन, जिन्हें कुमारी भगवती अम्मन भी कहा जाता है को समर्पित है। यह भारत के शक्ति पीठों में से एक है और भगवान परशुराम द्वारा बनाया गया पहला दुर्गा मंदिर है।
 

शक्ति पीठ: भारत में 50 से ज्यादा शक्ति पीठ हैं। यह सब देवी सती या शक्ति को समर्पित हैं। कुछ शक्ति पीठ हैं - हिमाचल प्रदेश के चिंतपुर्णी में चिन्नामस्तिका शक्ति पीठ, महाराष्ट्र के कोल्हापुर में महालक्ष्मी मंदिर, तमिलनाडु के कांचीपुरम में कामाक्षी मंदिर, कर्नाटक के मैसूर में चामुंडेश्वरी मंदिर, उत्तर प्रदेश के वाराणसी में विशालाक्षी मंदिर, हिमाचल प्रदेश में ज्वालाजी मंदिर, पश्चिम बंगाल के नंदीपुर में नंदीकेश्वर शक्ति पीठ, ओडिशा के पुरी में विमला मंदिर, मध्य प्रदेश के अमरकंटक में कमलादेवी शक्ति पीठ और अन्य।

मथुरा-वृन्दावन: भगवान कृष्ण मथुरा में पैदा हुए थे और उनका बचपन वृन्दावन में बीता था। इन जगहों में भगवान कृष्ण और उनकी प्रेयसी राधा को समर्पित कई मंदिर हैं। 

हरिद्वार: उत्तराखंड में स्थित यह स्थान कैलाश पर्वत की तीर्थयात्रा शुरु करने के लिए आदर्श स्थान माना जाता है। 

वाराणसी: काशी के नाम से भी जाना जाने वाला यह भारत का सबसे पवित्र शहर है। इस शहर के घाट और मंदिरों की ओर बड़ी संख्या में हिंदू भक्त आकर्षित होते हैं। 

इन सब जगहों के अलावा भारत में बड़ी संख्या में मंदिर और धार्मिक स्थान हैं, जैसे इलाहाबाद, उज्जैन, नासिक, ऋषिकेश, गया, मदुरै, महाबलेश्वर आदि, और भी कई पवित्र स्थान हैं जिनका हिंदुओं में बहुत महत्व है। 

इस्लाम

हजरतबल: हजरतबल श्रीनगर में स्थित है और यहां पैगंबर मोहम्मद के अवशेष होने के कारण बहुत लोकप्रिय है। भक्तों को इन्हें देखने की इजाज़त साल में एक बार होती है और इस दौरान बड़ी संख्या में तीर्थयात्री यहां आते हैं। 

जामा मस्जिद: मुगल बादशाह शाह जहां की बनवाई हुई यह मस्जिद पुरानी दिल्ली में स्थित है। यहां मोहम्मद के कुछ अवशेष मौजूद हैं और यहां एक साथ हजारों भक्त एकत्रित हो सकते हैं। 

चेरामन जुमा मस्जिद: केरल स्थित यह मस्जिद भारत की पहली मस्जिद मानी जाती है। पैगंबर मोहम्मद के पहले अनुयायी मलिक इब्न दिनार ने इसे 629 ईस्वी में बनवाया था। 

ताज-उल-मस्जिद: मध्य प्रदेश के भोपाल में स्थित यह मस्जिद एशिया की सबसे बड़ी मस्जिद है। इसके नाम का मतलब है सभी मस्जिदों के बीच ताज।

मक्का मस्जिद: हैदराबाद की यह मस्जिद भारत की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। इसका निर्माण उन ईंटों से हुआ है जिसकी मिट्टी पवित्र मक्का से लाई गई थी।

भारत में बड़ी संख्या में मस्जिद और दरगाह हैं। भारत की कुछ प्रमुख मस्जिदों में लखनउ की आसफी मस्जिद, हैदराबाद की चार मीनार, दिल्ली की मोती मस्जिद, अलीगढ़ की सर सैयद मस्जिद, कोलकाता की टीपू सुल्तान शाह और अन्य कई हैं।


सिख धर्म

स्वर्ण मंदिर: अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को हरमिंदर साहिब भी कहा जाता है। यह सिखों का सबसे प्रमुख तीर्थ माना जाता है। इस मंदिर के चार दरवाज़े इस बात का प्रतीेक हैं कि यह सभी धर्म और आस्था के लोगों के लिए खुला है। 

आनंदपुर साहिब: पंजाब के रुपनगर जिले का भाग यह शहर पवित्र शहर के तौर पर जाना जाता है। तख्त श्री केशवगढ़ साहिब आनंदपुर साहिब का मुख्य गुरुद्वारा और प्रमुख आकर्षण है। 

दमदमा साहिब: पंजाब के भटिंडा स्थित यह ‘टेम्पोरल प्राधिकरण’ के बैठने का स्थान है और सिखों का सबसे पूजनीय तख्त है।

पटना साहिब: तख्त पटना साहिब को तख्त श्री हरमिंदरजी भी कहा जाता है और बिहार के पटना स्थित यह जगह दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह का जन्मस्थान है।

हजूर साहिब: तख्त सचखंड श्री हजूर अबचलनगर साहिब महाराष्ट्र के नांदेड़ में स्थित है और सिखों के पांच तख्तों में से एक है। यह सबसे बड़े टेम्पोरल प्राधिकरणों में से एक है और इस जगह गुरु गोबिंद सिंह जी ने अंतिम सांस ली थी। 

हेमकुंड साहिब: उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित यह जगह दसवें सिख गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह को समर्पित है। 

गुरुद्वारा पावंटा साहिब: पावंटा साहिब गुरुद्वारा दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी को समर्पित है और हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में स्थित है। यहां गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा लिखी किताब दसम ग्रंथ रखे होने के कारण इसका बहुत महत्व है।

बंगला साहिब गुरुद्वारा: मध्य दिल्ली स्थित यह जगह पहले राजा जय सिंह की थी जिसे बाद में गुरु हरकिशन जी की याद में एक गुरुद्वारे में तब्दील कर दिया गया।
 

रकब गंज गुरुद्वारा: दिल्ली स्थित यह गुरुद्वारा गुरु तेग बहादुर को श्रद्धांजलि है जिन्हें मुगलों द्वारा मारे जाने के बाद बिना शीश के उनके शरीर का यहां अंतिम संस्कार किया गया था। 

सीस गंज गुरुद्वारा: यह दिल्ली का सबसे पुराना और ऐतिहासिक गुरुद्वारा है। यह गुरु तेग बहादुर और उनके अनुयायियों को समर्पित है जिन्हें चांदनी चैक में मुगलों ने मौत के घाट उतारा था। 

ईसाई धर्म

बोम जीसस का बेसिलिका: गोवा स्थित यह चर्च भारत का पहला चर्च है जिसे माइनर बेसिलिका का पद मिला और यह सेंट फ्रांसिस जेवियर की कब्र के लिए भी जाना जाता है।

सेंट केजटन चर्च: गोवा की इस चर्च का स्वरुप रोम की सेंट पीटर चर्च जैसा है। यह चर्च ईसाई वास्तुकला और नवचेतना का उदाहरण है।

सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी: गोवा स्थित यह स्थान पहले आर्कबिशप का महल था और से-कैथेड्रल को सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी चर्च और कॉन्वेंट से जोड़ता है। यह पहले एक कान्वेंट था और बाद में 1521 में फ्रांसिस फ्रिआर के लिए चर्च में तब्दील कर दिया गया।

सांताक्रूज बेसिलिका: केरल की इस चर्च को मूलतः पुर्तगालियों ने बनाया था और बाद में पोप पॉल चतुर्थ ने इसे 1558 में कैथेड्रल का दर्जा दिया। विध्वंस और पुनर्निमाण के अनुभवों के बाद आखिरकार 1984 में इसे पोप जॉन पॉल ने बेसिलिका घोषित किया।

लिटिल माउंट चर्च: श्राइन ऑफ आवर लेडी ऑफ गुड हेल्थ चैन्नई की एक लोकप्रिय चर्च है और यह देश की सबसे पुरानी चर्चों में से एक है। 

कैथेड्रल चर्च ऑफ सेंट थॉमस: यह मुंबई शहर की पहली एंग्लिकन चर्च है। इसकी नींव 1672 में रखी गई थी और 1718 में इसका निर्माण पूरा हुआ, जिसके बाद इसे आम जनता के लिए खोला गया।

क्राइस्ट चर्च और सेंट माइकल कैथेड्रल: हिमाचल प्रदेश के शिमला के लोकप्रिय मॉल रोड पर स्थित यह चर्च उत्तर भारत का दूसरा सबसे पुराना चर्च माना जाता है। 

सेकर्ड हार्ट कैथेड्रल: यह रोमन कैथोलिक कैथेड्रल दिल्ली की सबसे पुरानी चर्चों में से एक है। यहां पूरा साल ईसाई धार्मिक सेवाएं आयोजित होती हैं।

कानपुर मेमोरियल चर्च: इसे मूलतः ऑल सॉल्स कैथेड्रल कहा जाता है और यह 1875 में उन अंग्रेजों की याद में बना था जिन्होंने 1857 के युद्ध में अपनी जान गवां दी थी।

भारत की अन्य लोकप्रिय चर्चों में सेंट एंड्रयू, सेंट फ्रांसिस जेवियर चर्च, कैथेड्रल चर्च, सेंट मोनिका चर्च और कैथेड्रल, द चैपल ऑफ द लेडी ऑफ द माउंट और मेटर देई चर्च हैं। यह सभी चर्च गोवा में स्थित हैं। गोवा के बाहर कुछ मशहूर चर्चों में सरधाना की कैथोलिक चर्च, गोरखपुर की सेंट जोसफ रोमन चर्च, पल्लसुर की सेंट थॉमस श्राइन, कोचीन की सेंट फ्रांसिस चर्च, केरल की परुमला पल्ली, कोचीन की सेंटा क्रूज बेसिलिका आदि अन्य हैं। 

बौद्ध धर्म

बोध गया: यह बिहार में बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा तीर्थस्थल है और माना जाता है कि गौतम बुद्ध को यहां बोधि वृक्ष के नीचे आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी इसलिए इसका बहुत महत्व है। 

सारनाथ: उत्तर प्रदेश के सारनाथ में यह वो जगह है जहां बुद्ध ने धर्म पर अपना पहला पाठ सिखाया था।

कुशीनगर: उत्तर प्रदेश की इस जगह का बहुत धार्मिक महत्व है क्योंकि यहां गौतम बुद्ध ने अंतिम सांस ली थी और मृत्यु के बाद परिनिर्वाण पाया था।

जैन धर्म

बिहार का वैशाली, अंतिम तीर्थांकर महावीर का जन्मस्थान है और इसलिए यह जैन लोगों के लिए बहुत खास धार्मिक स्थान है। इस जगह का धार्मिक महत्व बौद्ध धर्म के लोगों के लिए भी है क्योंकि गौतम बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश यहां दिया था।

पावापुरी: बिहार का यह एक पवित्र स्थान है जहां भगवान महावीर ने मो़क्ष प्राप्त किया था। इन जगहों के अलावा देश में कई और मशहूर जैन मंदिर हैं। कुछ प्रसिद्ध मंदिर हैं.

गोमतेश्वर मंदिर: भगवान गोमतेश्वर या महान बाहुबली कर्नाटक के श्रवणबेलागोला में स्थित है और शहर के सबसे बड़े मंदिरों में से एक है। 

सोनागिरी मंदिर: मध्य प्रदेश के सोनागिरी में मुख्य मंदिर के अलावा कई दिगंबर जैन मंदिर हैं जो कि आसपास बने हैं। यह एक पहाड़ पर स्थित सफेद रंग के मंदिर हैं।

लाल मंदिर: नई दिल्ली के चांदनी चैक में स्थित श्री दिगंबर जैन लाल मंदिर भगवान पाश्र्वनाथ को समर्पित है।

पालिताना मंदिर: श्वेतांबर जैन को समर्पित यह मंदिर गुजरात के भावनगर में स्थित है, यहां शत्रुंजय पर्वत पर हजारों की संख्या में मंदिर हैं। जैन लोग मानते हैं कि निवार्ण पाने के लिए जीवन में कम से कम एक बार इन मंदिरों के दर्शन जरुर करने चाहिये।

बावनगजा मंदिर: यह पहले तीर्थांकर आदिनाथ की दुनिया में सबसे बड़ी प्रतिमा के लिए जाना जाता है और यह मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले में स्थित है।


यहूदी धर्म

यहूदियों के धार्मिक स्थान तीन विभिन्न यहूदी समूहों द्वारा बनाए और बांटे गए हैं। 

कोचीन सिनगाग: कोचीन का परदेसी सिनगाग राष्ट्रमंडल देशों का सबसे पुराना सिनगाग है। इसे कोचीन के यहूदी समुदाय या मालाबार येहूदन ने 1567 में बनवाया था।

बेने इसराइल सिनगाग: 18वीं सदी के अंत से 19वीं सदी की शुरुआत में बेने इजराइल यहूदी अहमदाबाद, मुंबई और पुणे में बस गए और देश के ज्यादातर सिनगाग बनाए। बेने इजराइल के कुछ सिनगाग में मुंबई का शार हाराचमिम, अहमदाबाद का मेगन अब्राहिम और महाराष्ट्र के अलीबाग और पनवेल और कोंकण के कई अन्य हैं।

बगदादी सिनगाग: भारत में बगदादी सिनगाग के निर्माण में इराकी यहूदियों के वंशजों ससून परिवार ने सहयोग दिया था। यह सिनगाग ज्यादातर पवित्र आर्क होते हैं जहां सेफर तोराह जमा होते हैं। भारत के कुछ बगदादी सिनगाग में महाराष्ट्र के भायकला का मेगन डेविड सिनगाग, मुंबई का केनसेथ एलियाहो सिनगाग और पुणे का ओहेल डेविड सिनगाग हैं।

सूफीवाद

मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह: अजमेर शरीफ के नाम से लोकप्रिय इस दरगाह के लिए माना जाता है कि यहां मांगी गई कोई दुआ खाली नहीं जाती। मशहूर संत मोइनुद्दीन चिश्ती की कब्र इस जगह है। इस स्थान पर सिर्फ मुस्लिम ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोग यहां प्रार्थना करते हैं। 

हाजी अली दरगाह: मुंबई में छोटे से टापू पर स्थित यह शहर का एक लैंडमार्क है। इस दरगाह में शाह बुखारी और सैयद पीर हाजी की कब्र है। हर साल यहां हजारों श्रद्धालु चादर चढ़ाने और प्रार्थना करने आते हैं। 

निजामुद्दीन दरगाह: दिल्ली में स्थित यह सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है। 

चिराग-ए-दिल्ली दरगाह: दिल्ली स्थित इस दरगाह में सूफी संत हजरत नसीरुद्दीन मेहमूद चिराग देहलवी की कब्र है जिन्हें रौशन चिराग-ए-दिल्ली का शीर्षक मिला था।

पिरान कलियार शरीफ: रुड़की से कुछ किलोमीटर दूर हरिद्वार के कलियार गांव में स्थित यह दरगाह सूफी संत अलाउद्दीन अली अहमद सबीर कलियारी की है। वो चिश्ती क्रम की सबरियान शाखा के पहले संत थे।

हजरत बू-ली शाह कलंदर: हरियाणा के पानीपत में यह दरगाह सूफी संत शेख शराफुद्दीन बू अली कलंदर की है और इसे मुगल जनरल महाबत खान ने बनवाया था। 

तरकीन दरगाह: अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के अनुयायी ख्वाजा हमीदुद्दीन नागौरी को यह समर्पित है। इस दरगाह का सबसे बड़ा आकर्षण एक बिना पत्तों का पेड़ है जिसने पूरी मजार को ढंक रखा है। 

सूफी दरगाहें या धार्मिक स्थान सबके लिए खुले रहते हैं। यहां सभी धर्मों के लोग बड़ी तादाद में आते हैं।

पारसी धर्म
पारसी धर्म के पूजा स्थलों को फायर टेंपल कहा जाता है। भारत में करीब 150 फायर टेंपल हैं, जिनमें से ज्यादातर मुंबई और गुजरात में हैं। भारत के कुछ मशहूर फायर टेंपल उदवाडा का इरानशाह अतश बेहरम, सूरत का वकील अतश बेहरम, हैदराबाद का मानकजी नुसरवंजी चिनॉय फायर टेंपल, मुंबई का सेठ होरमसजी बोमनजी वाडिया, नवसारी का मोबेद मिनोचेरहोमजी अदरायन और अन्य कई हैं। 

बहाई
लोटस टेंपल: पूजा के लिए यह बहाई हाउस 1986 में दिल्ली में बना था और यह अपने फूल जैसे आकार के लिए जाना जाता है। बड़ी संख्या में अलग अलग धर्म और आस्था के लोग हर दिन इस मंदिर का दौरा करते हैं। 

Thursday 1 June 2017

भारत की मुख्य पैदावार

भारत विभिन्न प्रकार के मौसम और मिट्टी से समृद्ध है। इसलिए यहां कीमती लकड़ी, सुगंधित मसाले, आकर्षक फूल और सुगंधित घास उगती है। आयुर्वेद के चिकित्सक इन पौधों का भावनात्मक, मानसिक या शारीरिक रोगों में इलाज करना जानते हैं। चंदन, अगर, जुटामांसी, वेटीवर, केसर, दालचीनी, चमेली, गुलाब, धनिया और अदरक आदि कुछ ऐसे सुगन्धित पौधे हैं जो कि उनके द्वारा उपचार की क्षमता के आधार पर मान्यता प्राप्त हैं।


इसके अलावा पौधों का उपयोग लोगों के कल्याण के लिए खाना बनाने, दवा बनाने, मालिश के तेल, सौंदर्य प्रसाधन, प्राकृतिक चंदन आधरित इत्र, धूप, फूलों की माला और मरहम बनाने में होता है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक भारतीय जीवन में शायद ही कोई ऐसा पहलू हो जो इन पौधों से प्रभावित ना रहा हो।

भारत के वनस्पति खजाने में रुचि रखनेवालों के लिए पूरे देश में कई आकर्षण मौजूद हैं।
फूल बाजार, आयुर्वेदिक फार्मेसी और अस्पताल, पारंपरिक इत्र केन्द्र, धूप की दुकानें और उत्पादक, इत्र तेल और अत्तर डिस्टिलरीज, बॉटनीकल गार्डन, मंदिर, मसालों की दुकान और विवाह समारोह, यह सब वह स्थान हैं जहां भारतीय जीवन में प्राकृतिक दुनिया का मेल देखा और अनुभव किया जा सकता है।



हिमालय की ढलानों से लेकर उत्तर पश्चिम और प्रायद्वीपीय भारत के जंगलों तक और अर्द्ध-शुष्क मध्य वनों से लेकर केरल के हरे भरे बागों तक और बंगाल, उत्तरपूर्वी पर्वतों और अंडमान और निकोबार में भारत की वनस्पतियां विविध भौगोलिक स्थिति के अनुरुप हैं।
भारत के जंगलों में रहने वाले कुछ प्रमुख जानवर रॉयल बंगाल टाइगर, बंदर, हाथी, लोमडि़यां, सियार, नेवला, भारतीय मगरमच्छ, घडि़याल, छिपकलियां, सांप-कोबरा शामिल हैं।
भारतीय मोर जो कि राष्ट्रीय पक्षी भी है के साथ ही क्रेन, स्टॉर्क, बुज्जा, हॉक, हॉर्नबिल, तोते और कौवे भी यहां पाए जाते हैं।

सबसे पवित्र मास होता है सावन, काशी विश्वनाथ के दर्शन करने से मिलता है मोक्ष

बोल बम के जयघोष के साथ सभी भक्त मां गंगा में स्नान करके जलकलश भरकर बाबा भोलेनाथ को अर्पण करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं. काशी के का...