Wednesday, 31 May 2017

राज्य- भारतीय भोजन


जम्मू और कश्मीर- गुस्तबाए तबक मज़ दम आलूए हाक और करम का साग
उत्तराखंड- आलू के गुटकेए कापाए झंगोरा की खीरए चैनसू
उत्तर प्रदेश- कबाबए बिरयानीए बेड़मी आलू कचोरीए बनारसी चाट
झारखंड- थेकुआए पुआए पिटठा मरुआ का रोटी
सिक्किम- मोमोसए थुपकाए गुंद्रुक फगशापा और सील रोटी
मणिपुर- इरोंबाए कबोकए चक्कौबा
नागालैंड- मोमोसए राईस बीयर और चैरी वाइन
असम- मसोर टेंगाए पीठा
अरुणाचल प्रदेश- चाइनीज भोजन और अपोंग
मेघालय- जदोहए क्यातए बीची
बिहार- लिट्टी चोखाए सत्तू पराठा खाजाए खूबी की लाईए अनारसाए तिलकूट
पश्चिम बंगाल- रसगुल्लाए मिष्टी दोईए भापा इलीश
त्रिपुरा- चखवीए मिखवी मुतरु
मिजोरम- ज़ू ; एक विशेष चायद्ध
पुडुचेरी- कडुगु येराए वेंडक्काईए पटचेड्डी
आंध्र प्रदेश- हैदराबादी बिरयानीए मिर्ची सालनए घोंघुरा पिकल कोरीकूरा
उड़ीसा- फिश ओरलीए खीरमोहनए रसबालीए चेन्नापोडापिठा
तमिलनाडु- अप्पमए डोसाए इडलीए सांभरए रसमए चेतीनाद चिकन पोंगल
केरल- पुट्टु.कडालाए कप्पा.मीन करी उदया मीलए अवियलए मलाबार पराठा पासयमए इराची स्टयूए करीमीन करी
कर्नाटक- बीसी बेले भातए केसरी भातए मैसूर पाकए धारवाड़ पेठाए चिरोटी

गोवा- विंडलूए ज़कूटीए बिबिनिकाए प्रोन बलचाओ
महाराष्ट्र- श्रीखंडए थालीपीठए वड़ा पावए मोदकए पानी पुरी
मध्य प्रदेश- लाप्सीए बाफलाए भूट््टे का किसए भोपाली कबाब
गुजरात- थेपलाए ढोकलाए खांडवीए हांडवोए पनकी
छततीसगढ- बफौरीए कुसली लाल चींटी की चटनी
राजस्थान- दाल बाटी सूरमाए केर सांगरीए लाल मासए गट्टे
दिल्ली- चसटए तंदूरी चिकनए पराठेए छोले भटूरे
हरियाणा- रबड़ीए बाजरे की खिचड़ीए चोलियाए छाछ लस्सीए कचरी की सब्जी
चंडीगढ- बटर चिकन तंदूरीए चिकनए मटन पुलाव
पंजाब- दाल मखनीए मक्के दी रोटीए सरसों दा सागए चने भटूरे
हिमाचल प्रदेश- सिदूए अकटोरीए धाम सेप्पू वादीए बडानाए बदरु

Tuesday, 30 May 2017

तिरंगे के रूप अनेक









भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को स्वतंत्रता के प्रतीक के तौर पर डिजाइन किया गया था।‘यह ना सिर्फ हमारी स्वतंत्रता का ध्वज है बल्कि सबकी आजादी का प्रतीक है’। 

भारतीय राष्ट्रीय ध्वज एक हॉरीजोंटल तिरंगा है, जिसमें बराबर अनुपात में गहरा भगवा रंग सबसे उपर, मध्य में सफेद और गहरा हरा रंग नीचे है। ध्वज की लंबाई चैड़ाई का अनुपात 2:3 है। सफेद पट्टी के बीच में एक गहरे नीले रंग का पहिया है जो धर्म चक्र का प्रतीक है। इस पहिये की 24 तीलियां हैं। 

ध्वज में भगवा रंग साहस, बलिदान और त्याग का प्रदर्शन करता है। इसका सफेद रंग पवित्रता और सच्चाई तथा हरा रंग विश्वास और उर्वरता का प्रतीक है।
 

भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का इतिहास
भारतीय राष्ट्रीय ध्वज बहुत महत्वपूर्ण है और यह भारत के लंबे स्वतंत्रता संग्राम का प्रतिनिधित्व करता है। यह भारत के एक स्वतंत्र गणतंत्र होने का प्रतीक है। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के वर्तमान स्वरुप का अस्तित्व 22 जुलाई 1947 को हुई संवैधानिक सभा की बैठक में आया। इस ध्वज ने 15 अगस्त 1947 से 26 जनवरी 1950 तक डोमिनीयन ऑफ इंडिया और उसके बाद से भारत गणराज्य के राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर देश का प्रतिनिधित्व किया। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को पिंगली वैंकया ने डिजाइन किया और इसमें भगवा, सफेद और हरे रंगों की समान पट्टियां हैं। इसकी चैड़ाई का अनुपात इसकी लंबाई के मुकाबले 2:3 है। 

सफेद पट्टी के बीच स्थित चक्र को अशोक चक्र कहा जाता है और इसमें 24 तीलियां होती हैं। भारतीय मानक संस्थान यानि आईएसआई के द्वारा निर्धारित मानक के अनुसार चक्र सफेद पट्टी के 75 प्रतिशत भाग पर फैला होना चाहिये। राष्ट्रीय ध्वज हमारे सबसे सम्मानजनक राष्ट्रीय चिन्हों में से एक है। इसके निर्माण और इसे फहराने को लेकर सख्त कानून बनाए गए हैं। आधिकारिक ध्वज ब्यौरे के अनुसार ध्वज का कपास, सिल्क और वूल को हाथ से कात कर बनाई खादी से बना होना आवश्यक है। 

1904 : भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का इतिहास स्वतंत्रता मिलने से भी पहले का है। सन् 1904 में पहली बार राष्ट्रीय ध्वज अस्तित्व में आया। इसे स्वामी विवेकानंद की एक आयरिश शिष्य ने बनाया था। उनका नाम सिस्टर निवेदिता था और कुछ समय बाद यह ‘सिस्टर निवेदिता का ध्वज’ के नाम से पहचाना जाने लगा। उस ध्वज का रंग लाल और पीला था। लाल रंग स्वतंत्रता के संग्राम और पीला रंग उसकी विजय का प्रतीक था। उस पर बंगाली में ‘बॉन्दे मातरम्’ लिखा था। इसके साथ ही ध्वज पर भगवान इन्द्र के हथियार वज्र का भी निशान था और बीच में एक सफेद कमल बना था। वज्र का निशान शक्ति और कमल शुद्धता का प्रतीक था।
 

1906 में भारतीय ध्वज1906 : सिस्टर निवेदिता के ध्वज के बाद सन् 1906 में एक और ध्वज डिजाइन किया गया। यह एक तिरंगा झंडा था और इसमें तीन बराबर पट्टियां थीं जिसमें सबसे उपर इसमें नीले, बीच में पीले और तल में लाल रंग था। इसकी नीली पट्टी में अलग अलग आकार के आठ सितारे बने थे। लाल पट्टी में दो चिन्ह थे, पहला सूर्य और दूसरा एक सितारा और अर्द्धचन्द्राकार बना था। पीली पट्टी पर देवनागरी लिपि में ‘वंदे मातरम्’ लिखा था। 

सन् 1906 में इस ध्वज का एक और संस्करण बनाया गया। यह भी एक तिरंगा था पर इसके रंग अलग थे। इसमें नारंगी, पीला और हरा रंग था और इसे ‘कलकत्ता ध्वज’ या ‘लोटस ध्वज’ के नाम से जाना जाने लगा, इसमें आठ आधे खुले कमल थे। माना जाता है कि इसे सचिन्द्र प्रसाद बोस और सुकुमार मित्रा ने बनाया था। इसे 7 अगस्त 1906 को कलकत्ता के पारसी बागान में फहराया गया था। इसे बंगाल के विभाजन के खिलाफ बहिष्कार दिवस के दिन सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने भारत की एकता के प्रतीक के तौर पर फहराया था।

1907 में भारतीय ध्वज1907 : यह ध्वज रंगों और इस पर बने फूल के अलावा सन् 1906 के ध्वज से काफी मिलता जुलता था। इस झंडे के तीन रंग थे, नीला, पीला और लाल और इसमें फूल का आकार काफी बड़ा था। 

इसके बाद मैडम भीकाजी रुस्तम कामा का झंडा आया। इस ध्वज को मैडम भीकाजी कामा, वीर सावरकर और कृष्णा वर्मा ने मिलकर बनाया था। इस झंडे को मैडम कामा नेे जर्मनी में स्टूटग्राट में 22 अगस्त 1907 को फहराया और यह ध्वज विदेशी धरती पर फहराया जाने वाला पहला ध्वज बन गया। उस दिन से इसे बर्लिन कमेटी ध्वज भी कहा जाने लगा। यह ध्वज तीन रंगों से बना था, जिसमें सबसे उपर हरा, मध्य में भगवा और आखिरी में लाल रंग था। इस के उपर ‘वंदे मातरम’ लिखा था। 


1916 : पूरे राष्ट्र को जोड़ने के उद्देश्य से सन् 1916 में एक लेखक और भूभौतिकीविद पिंगली वैंकया ने एक ध्वज डिजाइन किया। उन्होंने महात्मा गांधी से मिलकर ध्वज को लेकर उनकी मंजूरी मांगी। महात्मा गांधी ने उन्हें ध्वज पर भारत के आर्थिक उत्थान के प्रतीक के रुप में चरखे का चिन्ह बनाने का सुझाव दिया। पिंगली ने हाथ से काती गई खादी का एक ध्वज बनाया। उस झंडे पर दो रंग थे और उन पर एक चरखा बना था, लेकिन महात्मा गांधी ने उसे यह कहते हुए नामंजूर कर दिया कि उसका लाल रंग हिंदू और हरा रंग मुस्लिम समुदाय का तो प्रतिनिधित्व करता है पर भारत के अन्य समुदायों का इसमें प्रतिनिधित्व नहीं होता। 

1917 : बाल गंगाधर तिलक द्वारा गठित होम रुल लीग ने सन् 1917 में एक नया झंडा अपनाया। उस समय भारत द्वारा डोमिनियन के दर्जे की मांग की जा रही थी। झंडे पर सबसे उपर यूनियन जैक बना था। ध्वज के बचे हुए हिस्से पर पांच लाल और चार नीली पट्टियां थी। इस पर हिंदुओं में पवित्र माने जाने वाले सप्तर्षि नक्षत्र के सात तारे भी बने थे। इस पर उपर की ओर एक सितारा और एक अर्धचन्द्र भी बना था। यह ध्वज आम जनता में ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुआ।
 

1921 में भारतीय ध्वज1921 : महात्मा गांधी चाहते थे कि राष्ट्रीय ध्वज में भारत के सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व हो, इसलिए एक नया ध्वज बनाया गया। इस झंडे में तीन रंग थे। इसमें सबसे उपर सफेद, मध्य में हरा और सबसे नीचे लाल रंग था। इस ध्वज का सफेद रंग अल्पसंख्यकों का, हरा रंग मुस्लिमों का और लाल रंग हिंदू और सिख समुदायों का प्रतीक था। एक चरखा इन तीन पट्टियों पर फैलाकर बनाया गया था जो इनकी एकता का प्रतीक था। यह ध्वज आयरलैंड के ध्वज की तर्ज पर बनाया गया था जो कि भारत की तरह ही ब्रिटेन से स्वतंत्रता पाने के लिए संघर्ष कर रहा था। हालांकि कांग्रेस कमेटी ने इसे आधिकारिक ध्वज के तौर पर नहीं अपनाया पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीयता के प्रतीक के तौर पर इसका व्यापक इस्तेमाल हुआ। 


 1931 में भारतीय ध्वज1931 : ध्वज की सांप्रदायिक व्याख्या से कुछ लोग खुश नहीं थे। इसे ध्यान में रखते हुए एक नया झंडा बनाया गया जिसमें लाल की जगह गेरुआ रंग रखा गया। यह रंग दोनों समुदायों की संयुक्त भावना का प्रतीक था क्योंकि भगवा हिंदू योगियों और मुस्लिम दरवेशों का रंग है। सिख समुदाय ने ध्वज में अपने प्रतिनिधित्व की मांग की अथवा धार्मिक रंगों को ध्वज से हटाने को कहा। नतीजतन, पिंगली वैंकया ने एक और ध्वज बनाया। इस नए ध्वज में तीन रंग थे। सबसे उपर भगवा, उसके नीचे सफेद और सबसे नीचे हरा रंग। सफेद पट्टी के मध्य में चरखा बना था। सन् 1931 में कांग्रेस कमेटी की बैठक में इस ध्वज को कमेटी के आधिकारिक ध्वज के तौर पर अपनाया गया था।


1947 में भारतीय ध्वज1947 : भारत को आजादी मिलने के बाद भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर चर्चा के लिए राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई। कमेटी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ध्वज को कुछ संशोधनों के साथ अपनाना तय किया। नतीजतन, 1931 के ध्वज को भारतीय राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर अपनाया गया, लेकिन चरखे की जगह मध्य में चक्र रखा गया और इस तरह भारतीय राष्ट्रीय ध्वज अस्तित्व में आया।

ब्रिटिश भारत ध्वज 1858 1947ब्रिटिश भारत ध्वज 1858-1947 : ब्रिटिश भारत का ध्वज सन् 1858 में लाया गया। इसका डिजाइन पश्चिमी हेरैल्डिक मानकों के आधार पर था और यह कनाडा और आॅस्ट्रेलिया सहित अन्य ब्रिटिश काॅलोनियों के ध्वजों से मिलता जुलता था। इस नीले बैनर पर उपरी बाएं चतुर्थांश में यूनियन ध्वज और दाहिनीं तरफ मध्य में शाही ताज और स्टार आॅफ इंडिया बना हुआ था।

उत्पादन
ध्वज के उत्पादन के मानक तय करने के लिए एक कमेटी है। कमेटी ने इसे फहराने के लिए भी नियम बनाए हैं। इस कमेटी का नाम भारतीय मानक ब्यूरो है। इसने ध्वज संबंधी सभी बातों जैसे कपड़ा, डाई, रंग, धागों की गिनती और सभी बातों का विस्तृत विवरण दिया है। भारतीय ध्वज केवल खादी से बनाया जा सकता है। यह दो प्रकार की खादी से बनाया जाता है, एक प्रकार मुख्य हिस्से के काम आता है और दूसरा प्रकार जो ध्वज को डंडे से बांधे रखता है। 


भारतीय ध्वज आचार संहिता
राष्ट्रीय प्रतीक होने के नाते हर भारतीय इसका सम्मान करता है। आम लोगों के लिए भारतीय ध्वज संबंधी कुछ नियम बनाए गए हैं। 
राष्ट्रीय ध्वज को फहराते समय भगवा रंग सबसे उपर होना चाहिए।
कोई भी ध्वज या प्रतीक राष्ट्रीय ध्वज से उपर या दाहिनी ओर नहीं रखा जाना चाहिए।
यदि राष्ट्रीय ध्वज के साथ अन्य ध्वज भी एक ही कतार में लगाने हांे तो उन्हें बांई ओर लगाना चाहिए।
यदि राष्ट्रीय ध्वज को किसी परेड या जुलूस में थामा जाता है तो उसे दाहिनी ओर लेकर मार्च करना होता है। यदि दूसरे ध्वज भी साथ हांे तो उसे कतार के मध्य में रखना होता है।
सामान्यतः राष्ट्रीय ध्वज को महत्वपूर्ण इमारतों पर फहराया जाता है, जैसे राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, सचिवालय, आयुक्त कार्यालय आदि।
राष्ट्रीय ध्वज या उसकी नकल का इस्तेमाल व्यापार, व्यवसाय या पेशे के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय ध्वज को सूर्यास्त के समय उतारना आवश्यक है।


ध्वज संहिता के अनुसार भारत के नागरिकों को राष्ट्रीय ध्वज को कुछ महत्वपूर्ण दिन, जैसे गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और महात्मा गांधी के जन्मदिन के अलावा फहराने का अधिकार नहीं है। प्रसिद्ध उद्योगपति नवीन जिंदल ने अपने कार्यालय के भवन पर झंडा फहराने पर दी गई चेतावनी को कोर्ट में चुनौती दी। उन्होंने इसके खिलाफ एक जनहित याचिका दायर की जो कि अभी विचाराधीन है, लेकिन फैसला आने तक कोर्ट ने आम लोगों को सम्मानजनक तरीके से ध्वज फहराने की अस्थाई अनुमति दी है।

कुछ रोचक तथ्य
विश्व की सबसे उंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर 29 मई 1953 में भारतीय झंडा फहराया गया। विदेशी धरती पर पहली बार भारतीय झंडा मैडम भीकाजी कामा ने फहराया। उन्होंने इसे जर्मनी में स्टूटग्राट में 22 अगस्त 1907 को फहराया।

भारतीय राष्ट्रीय ध्वज पहली बार अंतरिक्ष में विंग कमांडर राकेश शर्मा के साथ 1984 में गया। राकेश शर्मा के स्पेस सूट पर वह एक पदक की तरह जोड़ा गया था। 

अंतिम संशोधन : अगस्त 10, 2016 में हुआ

Monday, 29 May 2017

राजा भरत की भूमि का नाम इंडिया कैसे पड़ा ?



ऐतिहासिक रुप से जिस विशाल भूभाग को हम भारत कहते हैं, उसे भारत वर्ष या पुराणों के अनुसार प्रसिद्ध राजा भरत की भूमि के नाम से जाना जाता था। यह क्षेत्र जंबू द्वीप नाम के उस बड़े क्षेत्र का हिस्सा था, जो कि उन सात महाद्वीपों का अंतरतम भाग था जिनमें हिंदू सृष्टिवर्णनकर्ताओं के अनुसार, पृथ्वी को विभाजित किया गया था। 

देश को ‘इंडिया’ नाम यूनानियों ने दिया। यह पुराने फारसी शिलालेखों के ‘हि-न-दू’ से मेल खाता है। ‘सप्त सिंधव’ और ‘हप्त हिंदू’ नाम की तरह जो कि वेद और वेदीनंद ने इस आर्य देश को दिया था। यह नाम महान सिंधु नदी से आया जो कि इस उपमहाद्वीप की सबसे बड़ी विशेषता है और इसने ही सबसे पुरानी सभ्यताओं का पोषण किया। दक्षिण पश्चिमी तिब्बत से 16,000 फुट की उंचाई से निकलती सिंधु, लद्दाख के लेह के पास से भारतीय क्षेत्र में प्रवेश करती है।

इस नदी का कुल जलनिकासी क्षेत्र लगभग 4,50,000 वर्ग मील है, जिसमें से 1,75,000 वर्ग मील हिमालय की पहाडि़यों और उसकी तलहटी में है।

 

जम्मू कश्मीर राज्य के लेह से 11 मील आगे बहने के बाद इस बेसिन में बायें ओर से इसकी पहली सहायक नदी जांस्कर जुड़ती है, जो कि जांस्कर घाटी को हरा भरा रखती है। पर्वतारोहण प्रेमियों को जांस्कर घाटी के कई पहाड़ी मार्ग आकर्षित करते हैं। सिंधु नदी फिर बटालिक के पास से होकर बहती है। जब यह मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है तो इसमें पांच प्रसिद्ध सहायक नदियां झेलम, चिनाब, रावी, ब्यास और सतलज जुड़ जाती हैं। इन पांच नदियों के कारण धान का कटोरा कहे जाने वाले पंजाब को ‘पांच नदियों की भूमि’ भी कहा जाता है। 

हालांकि, भारत से जुड़े ज्यादातर मिथक और भाव गंगा नदी से संबंधित हैं। गंगा नदी का पानी कभी शांत तो कभी उग्र है। प्रकृति की अप्रतिम सुंदरता और मानव आकांक्षाएं सब गंगा से ही पूरी होती हैं। सभ्यता के विकास के साथ साथ इसके किनारों पर पहुंचने के लिए तीर्थयात्रा होने लगी और मेले और त्यौहार मनने लगे। गंगा का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि भारतीय सभ्यता का। हड़प्पा सभ्यता को छोड़कर गंगा बेसिन भारत की पौराणिक कथाओं, इतिहास और लोगों के जीवन के हर पल का गवाह रहा है। भारत के महान साम्राज्यों जैसे मगध, गुप्त और मुगलों ने स्वयं को इसी मैदानी क्षेत्र में स्थापित किया। आज तक की सबसे समरुप संस्कृतियों का जन्म इसी क्षेत्र में हुआ। इसके अलावा, इसी जगह भारत में हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म का भाव स्थापित हुआ। यह नदी भारत की आर्थिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जीवनरेखा रही है। 

महान गंगा नदी का उद्भव उत्तर भारत के गढ़वाल क्षेत्र में गंगोत्री ग्लेशियर के नीचे से होता है, जो कि समुद्र तल से 3959 मीटर की उंचाई पर है। यहां इसे स्वर्ग से धरती पर लाने वाले महान राजकुमार भगीरथ के नाम पर, भागीरथी के नाम से जाना जाता है। गंगा गोमुख से बाहर फूट कर आती है जो गाय के मुंह के आकार की बर्फ से ढंकी एक गुफा है। भागीरथी इसमें से लगातार चमकती हुई और ग्लेशियर से टूटते बर्फ के बड़े बड़े टुकड़ों के साथ बहती है। इससे 18 किमी नीचे गंगोत्री है। ग्लेशियर के पिघलने और वर्तमान गोमुख की स्थिति के पहले यही गंगा का स्रोत था। गंगोत्री से आगे गंगा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों से गुजरती है जिनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश शामिल हैं। गंगा और उसकी सहायक नदियों के मार्ग में कई आबाद इलाके आते हैं जिन्होंने अपनी विशिष्ट संस्कृति स्वयं विकसित की है।


इस पवित्र नदी की उत्तर भारत की प्रारंभिक यात्रा के दौरान इसके तट पर उत्तरकाशी, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, ऋषिकेश और हरिद्वार जैसे महत्वपूर्ण स्थान आते हंै। हरिद्वार से इलाहाबाद तक गंगा के समानांतर यमुना नदी बहती है, जो उत्तर भारत की एक और प्रमुख नदी है। गंगा गढ़मुक्तेश्वर से भी गुजरती है, जहां माना जाता है कि देवी गंगा पांडवों के पूर्वज शांतनु को दिखती थी। यह बिठुर से भी बहती है जो कानपुर के पास लेकिन उससे बहुत पुराना शहर है। यहां एक प्राचीन शिव मंदिर भी है। तब जाकर गंगा इलाहाबाद पहुंचती है जो भारत का एक बहुत महत्वपूर्ण धार्मिक स्थान है। 

इलाहाबाद एक पवित्र स्थान है जिसमें आत्मा को शुद्ध करने तक की शक्तियां हैं, खासकर पौराणिक और भूमिगत नदी सरस्वती के कारण। माना जाता है कि सरस्वती इस स्थान पर गंगा और यमुना के साथ मिलती है जिसे संगम कहते हैं। वैदिक काल में इस संगम पर एक स्थान था जिसका नाम प्रयाग था, वहां वेद लिखे गए थे। कहा जाता है कि ब्रह्मा ने स्वयं यहां बलिदान दिया था। हून त्सांग ने 634 ईसवी में प्रयाग की यात्रा की थी। मुगल शासक अकबर ने इस स्थान का नाम बदलकर इलाहाबास किया था जो बाद में इलाहाबाद में बदल गया। संगम के सामने अकबर द्वारा बनवाया गया विशाल ऐतिहासिक लाल पत्थरों से बना किला है।
 


हरिद्वार की तरह ही वाराणसी भी मंदिरों का शहर है। हालांकि वाराणसी का वर्णन करना मुश्किल है। श्री रामकृष्ण ने एक बार कहा था, ‘वाराणसी का शब्दों में वर्णन करने के प्रयास में पूरे संसार का नक्शा तैयार किया जा सकता है’। धरती के सभी शहरों में सबसे पुराने इस शहर का इतिहास 2500 साल पुराना है। इसे बुद्ध के दिनों में भी जाना जाता था। प्राचीन ग्रंथों में इसका वर्णन होता रहा है और यह भगवान शिव से जुड़ा एक पवित्र तीर्थस्थल रहा है। हिंदुओं में मान्यता है कि इस स्थान पर प्राण त्यागने वाले को सीधे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। आश्चर्य है कि वाराणसी का नाम गंगा के महान संगम पर नहीं बल्कि उससे यहां जुड़ती दो छोटी नदियों वरुणा और असी के नाम से मिलकर बना। भारत की सबसे प्राचीन आबाद बस्ती काशी वरुणा के उत्तर में स्थित है। 

अपने मैदानी इलाकों को पार करके गंगा पटना से बहती है। पटना का वर्णन भारत के इतिहास की किताबों में प्रसिद्ध पाटलीपुत्र के नाम से है। प्रसिद्ध शिकारी और संरक्षणवादी जिम काॅर्बेट के भारत में रहने के दौरान उनके कार्य स्थल मोकामा से भी गंगा गुजरती है। यह फरक्का बैराज से बहती है, जो हुगली नदी में पानी छोड़ने के लिए बनाया गया ताकि हुगली में कीचड़ का जमना रोका जा सके। इसके तुरंत बाद गंगा कई सहायक नदियों में बंट जाती है, जो गंगा डेल्टा का निर्माण करती हैं। हुगली इसकी एक सहायक नदी है जिसे सच्ची गंगा माना जाता है। इसकी एक मुख्य नहर बांग्लादेश जाती है जिसे वहां पद्मा नदी कहा जाता है, यह प्रसिद्ध भारतीय कवि रवींद्रनाथ टैगौर को बहुत प्यारी थी। 

गंगा की तरह ही भारत भर में बहने वाली नदियां उस क्षेत्र के लोगों के लिए पवित्र हैं। यही बात उत्तर भारत में गंगा के मैदानी इलाकों के साथ साथ देश के दक्षिण क्षेत्र पर भी लागू होती है। यह विंध्य पर्वत की श्रृंखला वाला पहाड़ी क्षेत्र है, जहां भारत के लोगों द्वारा पूजी जाने वाली कावेरी नदी की उर्वर भूमि है। यह नदी नीलगिरी के आसमानी पर्वतों से बहती है। आज इस क्षेत्र में भारत के चार राज्य आते हैं, तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश। समय के साथ परंपराओं की निरंतरता इन राज्यों में साफ दिखाई देती है। कावेरी के भूमि क्षेत्र के उपर उड़ीसा राज्य स्थित है। उड़ीसा भारत का एक और संस्कृति समृद्ध राज्य है, जिसका पोषण महानदी नाम की नदी करती है। 


पूरे पूर्वी भारत से विशाल ब्रह्मपुत्र नदी बहती है। ब्रह्मपुत्र का पानी चीन से होता हुआ भारत के अरुणाचल प्रदेश और असम में आता है। आगे उत्तरपूर्व में सात अन्य राज्य हैं, त्रिपुरा, मेघालय, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मिजोरम। भारत के मध्य और पश्चिम क्षेत्र में दो नदियां, नर्मदा और ताप्ती हैं। इनकी विशेषता है कि वो भारत की अन्य नदियों से भिन्न पूर्व से पश्चिम में बहती हैं, इसमें ब्रह्मपुत्र एक अपवाद है। इन दोनोें में से नर्मदा का पौराणिक महत्व ज्यादा है क्योंकि इसे मां और दानी माना गया है। मान्यता है कि नर्मदा के दर्शन मात्र से आत्मा शुद्ध हो जाती है, जबकि इसी कार्य के लिए गंगा में एक और यमुना में सात बार डुबकी लगाई जाती है। 

भारतीय मिट्टी की सुगन्ध


भारत बहुत भाग्यशाली है कि उसके पास विश्व की सबसे व्यापक और उर्वर भूमि है जो कि प्रबल नदियों द्वारा गोद के रुप में लाई गई जलोड़ मिट्टी से बनी है। हिमालय के दक्षिण में स्थित उत्तर भारत का ग्रेट प्लेन क्षेत्र इंडस बेसिन, गंगा-ब्रह्मपुत्र बेसिन और इन प्रबल नदी तंत्र की सहायक नदियों से मिलकर बना है। 

उत्तर भारत के ग्रेट प्लेन के दक्षिण में प्रायद्वीपीय भारत का ग्रेट प्लेटू है जो कि दो भागों में बंटा है यानि मालवा पठार और डेक्कन पठार। मालवा पठार उत्तर पश्चिम से अरावली की पहाडि़यों से घिरा है और दक्षिण में विंध्य है, जो इस प्रायद्वीप का आधा उत्तरी भाग बनाता है। छोटा नागपुर इस पठार का उत्तरपूर्वी हिस्सा है और यह भारत का सबसे अधिक खनिज समृद्ध राज्य है। नर्मदा नदी की घाटी इस पठार की दक्षिणी सीमा बनाती है। डेक्कन पठार, उत्तर की सतपुड़ा की पहाडि़यों से दक्षिण के कन्याकुमारी तक फैला है। 

इस पठार के पश्चिम में पश्चिमी घाट है जिसमें सहयाद्री, नीलगिरी, अन्नामलाई और कार्डमम पर्वत शामिल हैं। पूर्व की ओर यह पठार कई छोटी पहाडि़यों में मिल जाता है जिन्हें महेन्द्र गिरी की पहाडि़यों के नाम से जाना जाता है और ये पूर्वी घाट का हिस्सा है।


अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के साथ ही छोटा सा तटीय मैदानी क्षेत्र भी है जिसके क्रमशः पूर्वी और पश्चिमी तरफ डेक्कन पठार है। पश्चिमी तटीय मैदानी इलाका, पश्चिमी घाट और अरब सागर के मध्य में स्थित है और आगे जाकर उत्तरी कोंकण तट और दक्षिणी मालाबार तट में विभाजित हो जाता है। दूसरी ओर पूर्वी तटीय मैदानी क्षेत्र, पूर्वी घाट और बंगाल की खाड़ी के बीच स्थित है और पश्चिमी मैदानी इलाकों की तरह दो हिस्सों में बंट जाता है, दक्षिणी भाग के रुप में कोरोमंडल तट में और उत्तरी भाग के तौर पर उत्तरी सिरकरस में। 


भारत के लगभग आधे पश्चिमी भाग में एक बहुत विस्तृत भूमि है जो कि अरावली की पहाडि़यों से दो अलग अलग इकाइयों में बंटी है। अरावली के पश्चिम की ओर के क्षेत्र में थार का रेगिस्तान शामिल है जो कि रेत से बना है और निर्जल घाटियों और चट्टानी पहाडि़यों से अवरुद्ध है। ये इलाका पाकिस्तान में भी दूर तक फैला है। इस श्रृंखला के पूर्व की ओर गुजरात राज्य है जो कि भारत के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है। 

इस मुख्य भू भाग में भारत के अलावा दो द्वीप समूह भी हैं, बंगाल की खाड़ी में अंडमान और निकोबार और अरब सागर में लक्ष्यद्वीप। 

राजनीतिक तौर पर भारत ने आजादी के पहले की स्थिति की तरह अपनी प्राकृतिक सीमाओं को बढ़ाया और ना सिर्फ किरथर श्रृंखला के आगे बलूचिस्तान बल्कि बंगाल की खाड़ी का एक छोटा हिस्सा भी शामिल किया।

Sunday, 28 May 2017

भारतीय संस्कृति


भारतीय संस्कृति और सभ्यता की जड़ों के चिन्ह 5,000 साल तक खोजे जा सकते हैं, जिसमें एक अटूट और निरंतर चले आ रही परंपरा, रिवाज और विश्व प्रसिद्ध दर्शन संस्था शामिल है। भारत में धर्म सिर्फ एक विश्वास प्रणाली नहीं है अपितु स्वयं को खोजने की यात्रा है जो नश्वर को गौरव और बलिदान के अनश्वर में विकसित होने में मदद करता है। प्राचीन भारत में राजाओं को सिर्फ शासक नहीं लेकिन महान व्यक्ति के तौर पर कार्य करना होता था। ऐसे कुछ स्पष्ट उदाहरण हैं राजा विक्रमादित्य जो अपने कलात्मक और बौद्धिक योगदान के लिए जाने जाते हैं। राजा अशोक जो अपने शांतिपूर्ण आदर्शों के लिए प्रसिद्ध हैं और भारत के महान योद्धा पृथ्वीराज चैहान। पूरे इतिहास के दौरान भारतीय भाषाओं और साहित्य ने अन्य महान सभ्यताओं और विश्व के विकास पर अच्छा खासा प्रभाव डाला। असली भारत को समझने के लिए विभिन्न क्षेत्रों की भाषाओं का परिचय आवश्यक है ताकि भारतीय सभ्यता, परंपरा, इतिहास और लोककथाओं की अच्छी खासी जानकारी जुटाई जा सके। 


दुनिया के कुछ सबसे खूबसूरत स्थानों वाले भारत को धरती का स्वर्ग भी कहा जाता है। कश्मीर एक ऐसी ही जगह है जिसने अपनी बर्फ से ढंकी पहाडि़यों की सुंदरता, डल झील, शालीमार गार्डन और सुप्रसिद्ध इंडिया गार्डन से विश्व भर के पर्यटकों को सम्मोहित कर रखा है। 



आम धारणा के विपरीत पारंपरिक भारत में लड़कियों को गुरु के मार्गदर्शन में रखा जाता था जहां वे विभिन्न विज्ञान के साथ साथ अपना कलात्मक कौशल बढ़ाने के लिए भारतीय संगीत और नृत्य की विविध शैलियां भी सीखती थीं। विशेष रुप से शादी के बाद भारतीय महिला को अपने वैवाहिक जीवन में खुशी के शुभ प्रतीक स्वरुप स्वदेशी कारीगरों के बनाए जटिल गहने पहनने होते हैं। बच्चों के नामकरण के लिए आकर्षक भारतीय नाम खोजने में भारतीय सांस्कृतिक संसाधन बहुत मदद करते हैं। 



प्राचीन भारत में रसोई को एक पूजनीय स्थल माना जाता है, जहां अग्नि देवता का वास होता है और वे पूरे परिवार का पोषण करते हैं। आकर्षक भारतीय व्यंजन देशी से लेकर विदेशी सबको लुभाते हैं। इसका एक कारण शायद भारतीय व्यंजनों के अनगिनत प्रकार हैं, जो अपने अद्वितीय स्वाद के लिए प्रसिद्ध हैं। 

सदियों तक अविश्वसनीय विविधता वाले लोगों की संस्कृतियों का आत्मसात और पोषण करने के बाद भारत अब भी दुनिया भर के लोगों के लिए एक आकर्षण है। आज भी विशिष्ट संस्कृति से जुड़ी वस्तुएं जैसे अनूठे भारतीय कपड़े, मनोरम भारतीय खाद्य व्यंजन, मधुर भारतीय संगीत और आकर्षक भारतीय नाम भारत की सच्ची पहचान के परिचायक हैं।

 

आधुनिक संदर्भ में भी, बाॅलीवुड को लेकर भारत एक विशेष स्थान रखता है। बाॅलीवुड विश्व का सबसे बड़ा फिल्म उद्योग है जो देश की अनूठी सांस्कृतिक पहचान का प्रतिनिधित्व करता है। बोलचाल की भाषा में भारतीय मसाला फिल्मों के नाम से मशहूर फिल्मों ने भारतीय बाॅक्स आॅफिस के साथ साथ विश्व भर में लहर पैदा की है। व्यवसायिक फिल्मों के विस्तार और बड़ी संख्या में क्राॅस ओवर फिल्मों के निर्माण ने भारतीय अभिनेताओं और सितारों का वैश्विक उन्माद पैदा किया है। भारतीय फैशन जगत के नई पीढ़ी के भारतीय माॅडल्स ने कई अंतर्राष्ट्रीय सौंदर्य प्रतियोगिताएं जीतकर वैश्विक मीडिया को प्रभावित किया और अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है।
 

मेरा देश, मेरा वतन - भारत



भारत को जानना है तो उसकी आवाज़ सुनो। वह आवाज़ जो प्राचीन गुफाओं की दीवारों पर उकेर कर लिखे गए शिलालेखों से आती है, उसे सुनो। सुनो किसी साधु को या किसी लोक कथाकार को, हमेशा से बहती आई किसी सदाबहार नदी को या सालों से खड़े अमर विशाल पर्वतों से गूंजकर लौटती आवाज़ सुनो। किसी संगमरमर या पत्थर पर साकार रुप में उकेरी गई प्रार्थना को देखो या किसी बरगद के नीचे लेटो और सुनो, इस भारत को सुनो। 

यह नाम भारत, उस विशाल प्रायद्वीप को दिया गया है जो एशिया महाद्वीप में तिब्बत की दक्षिणी सीमा पर एक तलवार की तरह घुमावदार आकार वाली विशाल पर्वत श्रृंखला से लगा है। एक अव्यवस्थित चतुर्भुज के आकार वाला, बड़े इलाके में फैला यह क्षेत्र जिसे हम भारत कहते हैं, उपमहाद्वीप के नाम का सच्चा हकदार है। प्राचीन भूगोलज्ञ भारत को ‘चतुः समस्थाना संस्थितं से गठित’ कहते थे। इसके दक्षिण, पश्चिम और पूर्व दिशा में महान महासागर और उत्तर में धनुष की प्रत्यंचा की तरह हिमवत श्रृंखला फैली है। 

हिमवत नाम ना सिर्फ बर्फ से ढंके हिमालय बल्कि उससे कम उंचाई वाले पूर्व दिशा में स्थित पटकाई, लुशाई और चटगांव पर्वत और पश्चिम के सुलेमान और किरथर श्रृंखला को भी कहा जाता है। यह श्रृंखला समुद्र तक जाती है और एक ओर यह भारत को वृक्षयुक्त इरावती घाटी से अलग करती है तो दूसरी ओर इसे ईरान के पर्वतीय पठार से अलग करती है। मिथकों और रहस्यों से भरा विशाल हिमालय अपने अद्भुत वैभव के साथ स्थित है। यह छोटी बड़ी पर्वत श्रंखलाएं अपनी बर्फ की कभी ना खत्म होने वाली धाराओं से गंगा को पोषित करती रहती हैं। हिमालय कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के लोगों का घर है। 

प्रत्येक भारतीय को बर्फ से ढंकी पहाड़ों की चोटियों से प्यार है क्योंकि यह हर भारतीय के जीवन का हिस्सा है। भारतीय लोग पहाड़ों का वैसा ही सम्मान करते हैं जैसा वह अपने पिता का करते हैं। आज भी जब भारत के शहरों में लोगों की समय के साथ दौड़ चल रही है, कुछ तपस्वी हैं जो दिव्यता की खोज में बर्फ से ढंके पहाड़ों पर गुफाओं में रहते हैं। यह कोई आश्चर्य नहीं है कि आज के युग में भी कुछ महान दार्शनिक हुए हैं जैसे रमण महर्षि, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस और जे कृष्णमूर्ति।

भारत एक प्राचीन धरोहर

भारत में मानवीय कार्यकलाप के जो प्राचीनतम चिह्न अब तक मिले हैं, वे 4,00,000 ई. पू. और 2,00,000 ई. पू. के बीच दूसरे और तीसरे हिम-युगों के संधिकाल के हैं और वे इस बात के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि उस समय पत्थर के उपकरण काम में लाए जाते थे। जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण केरल से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है। इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं।इसके पश्चात एक लम्बे अरसे तक विकास मन्द गति से होता रहा, जिसमें अन्तिम समय में जाकर तीव्रता आई और उसकी परिणति 2300 ई. पू. के लगभग सिन्धु घाटी की आलीशान सभ्यता (अथवा नवीनतम नामकरण के अनुसार हड़प्पा संस्कृति) के रूप में हुई। हड़प्पा की पूर्ववर्ती संस्कृतियाँ हैं: बलूचिस्तानी पहाड़ियों के गाँवों की कुल्ली संस्कृति और राजस्थान तथा पंजाब की नदियों के किनारे बसे कुछ ग्राम-समुदायों की संस्कृति।यह काल वह है जब अफ़्रीक़ा से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है।




प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत
भारतीय इतिहास जानने के स्रोत को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं-

साहित्यिक साक्ष्य
विदेशी यात्रियों का विवरण
पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य
साहित्यिक साक्ष्य

साहित्यिक साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य।
धार्मिक साहित्य
धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर साहित्य की चर्चा की जाती है।

ब्राह्मण ग्रन्थों में-
वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृति ग्रन्थ आते हैं।

ब्राह्मणेत्तर ग्रन्थों में जैन तथा बौद्ध ग्रन्थों को सम्मिलित किया जाता है।
लौकिक साहित्य
लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक ग्रन्थ, जीवनी, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है।
धर्म-ग्रन्थ
प्राचीन काल से ही भारत के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां प्रायः तीन धार्मिक धारायें- वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुईं। वैदिक धर्म ग्रन्थ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है।
ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ
ब्राह्मण धर्म - ग्रंथ के अन्तर्गत वेद, उपनिषद्, महाकाव्य तथा स्मृति ग्रंथों को शामिल किया जाता है।
वेद
मुख्य लेख : वेद
वेद एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ है। वेद शब्द का अर्थ ‘ज्ञान‘ महतज्ञान अर्थात ‘पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान‘ है। यह शब्द संस्कृत के ‘विद्‘ धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। वेदों के संकलनकर्ता 'कृष्ण द्वैपायन' थे। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण 'वेदव्यास' की संज्ञा प्राप्त हुई। वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में प्रारम्भिक जानकारी मिलती है। कुछ लोग वेदों को अपौरुषेय अर्थात दैवकृत मानते हैं। वेदों की कुल संख्या चार है-

ऋग्वेद- यह ऋचाओं का संग्रह है।
सामवेद- यह ऋचाओं का संग्रह है।
यजुर्वेद- इसमें यागानुष्ठान के लिए विनियोग वाक्यों का समावेश है।
अथर्ववेद- यह तंत्र-मंत्रों का संग्रह है।
ब्राह्मण ग्रंथ

मुख्य लेख : ब्राह्मण साहित्य
यज्ञों एवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई। यहां पर 'ब्रह्म' का शाब्दिक अर्थ हैं- यज्ञ अर्थात यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही 'ब्राह्मण ग्रंथ' कहे गये। ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वथा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं। इनमें उत्तरकालीन समाज तथा संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक वेद (संहिता) के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं।

आरण्यक

मुख्य लेख : आरण्यक साहित्य
आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात वन में किया जाता था। ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले सन्न्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं। ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं। अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या की महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरु, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।

उपनिषद

मुख्य लेख : उपनिषद
उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। प्रमुख उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकि, मुण्डक, प्रश्न, मैत्राणीय आदि। लेकिन शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर स्पना भाष्य लिखा है, उनको प्रमाणिक माना गया है। ये हैं - ईश, केन, माण्डूक्य, मुण्डक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, प्रश्न, छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद। इसके अतिरिक्त श्वेताश्वतर और कौषीतकि उपनिषद भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार 103 उपनिषदों में से केवल 13 उपनिषदों को ही प्रामाणिक माना गया है। भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' मुण्डोपनिषद से लिया गया है। उपनिषद गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमें प्रश्न, माण्डूक्य, केन, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषद गद्य में हैं तथा केन, ईश, कठ और श्वेताश्वतर उपनिषद पद्य में हैं।

वेदांग

मुख्य लेख : वेदांग
वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं। वेदांग शब्द से अभिप्राय है- 'जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले'। वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-
1- शिक्षा, 2- कल्प, 3- व्याकरण, 4- निरूक्त, 5- छन्द एवं 6- ज्योतिष

ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं- 1- धर्म सूत्र, 2- स्मृति, 3- टीका एवं 4- निबन्ध।
स्मृतियाँ

मुख्य लेख : स्मृतियाँ
स्मृतियों को 'धर्म शास्त्र' भी कहा जाता है- 'श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः।' स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ। मनुष्य के पूरे जीवन से सम्बधित अनेक क्रिया-कलापों के बारे में असंख्य विधि-निषेधों की जानकारी इन स्मृतियों से मिलती है। सम्भवतः मनुस्मृति (लगभग 200 ई.पूर्व. से 100 ई. मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्त्वपूर्ण स्मृतिकार थे- नारद, पराशर, बृहस्पति, कात्यायन, गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है। नारद स्मृति से गुप्त वंश के संदर्भ में जानकारी मिलती है। मेधातिथि, मारुचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने 'मनुस्मृति' पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने 'याज्ञवल्क्य स्मृति' पर भाष्य लिखे हैं।

महाकाव्य

मुख्य लेख : महाकाव्य
'रामायण' एवं 'महाभारत', भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में काफ़ी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चौथी शती ई.पू. से चौथी शती ई. के मध्य माना गया है।

रामायण

मुख्य लेख : रामायण
रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान संस्कृत भाषा में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये । इसे 'चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता' भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड एवं उत्तराकाण्ड नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। रामायण द्वारा उस समय की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है। रामकथा पर आधारित ग्रंथों का अनुवाद सर्वप्रथम भारत से बाहर चीन में किया गया। भूशुण्डि रामायण को 'आदिरामायण' कहा जाता है।

महाभारत

मुख्य लेख : महाभारत
महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद है। इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है। महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक थे तथा इसका नाम 'जयसंहिता' (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात यह वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत‘ कहलाया। कालान्तर में गुप्त काल में श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह 'शतसाहस्त्री संहिता' या 'महाभारत' कहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख 'आश्वलाय गृहसूत्र' में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है। महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो- आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेध, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक एवं स्वर्गारोहण में विभाजित है। महाभारत में ‘हरिवंश‘ नाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।

पुराण

मुख्य लेख : पुराण
प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ को पुराण कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से 4थी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे। ब्रह्म वैवर्त पुराण में पुराणों के पांच लक्षण बताये ये हैं। यह हैं- सर्प, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित। कुल पुराणों की संख्या 18 हैं- 1. ब्रह्म पुराण 2. पद्म पुराण 3. विष्णु पुराण 4. वायु पुराण 5. भागवत पुराण 6. नारदीय पुराण, 7. मार्कण्डेय पुराण 8. अग्नि पुराण 9. भविष्य पुराण 10. ब्रह्म वैवर्त पुराण, 11. लिंग पुराण 12. वराह पुराण 13. स्कन्द पुराण 14. वामन पुराण 15. कूर्म पुराण 16. मत्स्य पुराण 17. गरुड़ पुराण और 18. ब्रह्माण्ड पुराण

बौद्ध साहित्य

मुख्य लेख : बौद्ध साहित्य
बौद्ध साहित्य को ‘त्रिपिटक‘ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये त्रिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं। वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं-
सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक।

जैन साहित्य

मुख्य लेख : जैन साहित्य
ऐतिहसिक जानकारी हेतु जैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है। आगे चलकर इनके 'उपांग' भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।

विदेशियों के विवरण

विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास की जानकारियाँ मिलती है। इनको तीन भागों में बांट सकते हैं-
यूनानी-रोमन लेखक
चीनी लेखक
अरबी लेखक
पुरातत्त्व

मुख्य लेख : पुरातत्त्व
पुरातात्विक साक्ष्य के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां चित्रकला आदि आते हैं। इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्त्व सामग्री में अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं। यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘बोगजकोई‘ नाम स्थान से क़रीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं - इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।

चित्रकला

मुख्य लेख : चित्रकला
चित्रकला से हमें उस समय के जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। अजंता के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। चित्रों में ‘माता और शिशु‘ या ‘मरणशील राजकुमारी‘ जैसे चित्रों से गुप्तकाल की कलात्मक पराकाष्ठा का पूर्ण प्रमाण मिलता है।

मुख्य लेख : भारत का इतिहास पाषाण काल

समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-

प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक काल
आद्य ऐतिहासिक काल
ऐतिहासिक काल
भारत की आदिम (प्रारंभिक) जातियाँ

मुख्य लेख : भारत की आदिम जातियाँ
प्रारम्भिक काल में भारत में कितने प्रकार की जातियां निवास करती थीं, उनमें आपसी सम्बन्घ किस स्तर के थे, आदि प्रश्न अत्यन्त ही विवादित हैं। फिर भी नवीनतम सर्वाधिक मान्यताओं में 'डॉ. बी.एस. गुहा' का मत है। भारतवर्ष की प्रारम्भिक जातियों को छः भागों में विभक्त किया जा सकता है। -

नीग्रिटों
प्रोटो-ऑस्ट्रेलियाईड
मंगोलायड
भूमध्य सागरीय
पश्चिमी ब्रेकी सेफल
नॉर्डिक
सिंधु घाटी सभ्यता
मुख्य लेख : सिंधु घाटी सभ्यता
आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के 'पश्चिमी पंजाब प्रांत' के 'माण्टगोमरी ज़िले' में स्थित 'हरियाणा' के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास नहीं था कि वे अपने आस-पास की ज़मीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से अपने मकानों का निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हें तब हुआ जब 1856 ई. में 'जॉन विलियम ब्रन्टम' ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ करवायी। खुदाई के दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।

हड़प्पा लिपि
मुख्य लेख : हड़प्पा लिपि
हड़प्पा लिपि का सर्वाधिक पुराना नमूना 1853 ई. में मिला था पर स्पष्टतः यह लिपि 1923 तक प्रकाश में आई। सिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिह्न एवं 205 से 400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। यह लिपि चित्रात्मक थी। यह लिपि अभी तक गढ़ी नहीं जा सकी है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में क़रीब 17 चिह्न हैं। कालीबंगा के उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के ठीकरों पर उत्कीर्ण चिह्न अपने पार्श्ववर्ती दाहिने चिह्न को काटते हैं। इसी आधार पर 'ब्रजवासी लाल' ने यह निष्कर्ष निकाला है - 'सैंधव लिपि दाहिनी ओर से बायीं ओर को लिखी जाती थी।'

मृण्मूर्तियां

मुख्य लेख : हड़प्पा सभ्यता की मृण्मूर्तियां
हड़प्पा सभ्यता से प्राप्त मृण्मूर्तियों का निर्माण मिट्टी से किया गया है। इन मृण्मूर्तियों पर मानव के अतिरिक्त पशु पक्षियों में बैल, भैंसा, बकरा, बाघ, सुअर, गैंडा, भालू, बन्दर, मोर, तोता, बत्तख़ एवं कबूतर की मृणमूर्तियां मिली है। मानव मृण्मूर्तियां ठोस है पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां ठोस हैं, पर पशुओं की खोखली। नर एवं नारी- मृण्मूर्तियां में सर्वाधिक नारी मृण्मूर्तियां मिली हैं।

हड़प्पा सभ्यता के नगरों की विशेषताएं

मुख्य लेख : हड़प्पा सभ्यता की नगर योजना
हड़प्पा संस्कृति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी- इसकी नगर योजना। इस सभ्यता के महत्त्वपूर्ण स्थलों के नगर निर्माण में समरूपता थी। नगरों के भवनो के बारे में विशिष्ट बात यह थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे।

हडप्पा जनजीवन

मुख्य लेख : हड़प्पा समाज और संस्कृति
हडप्प्पा संस्कृति की व्यापकता एवं विकास को देखने से ऐसा लगता है कि यह सभ्यता किसी केन्द्रीय शक्ति से संचालित होती थी। वैसे यह प्रश्न अभी विवाद का विषय बना हुआ है, फिर भी चूंकि हडप्पावासी वाणिज्य की ओर अधिक आकर्षित थे, इसलिए ऐसा माना जाता है कि सम्भवतः हड़प्पा सभ्यता का शासन वणिक वर्ग के हाथ में था।

ह्नीलर ने सिंधु प्रदेश के लोगों के शासन को 'मध्यम वर्गीय जनतंन्त्रात्मक शासन' कहा और उसमें धर्म की महत्ता को स्वीकार किया।
स्टुअर्ट पिग्गॉट महोदय ने कहा 'मोहनजोदाड़ों का शासन राजतन्त्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक' था।
मैके के अनुसार ‘मोहनजोदड़ों का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथों था।
प्रागैतिहासिक काल
मुख्य लेख : प्रागैतिहासिक काल
भारत का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से आरम्भ होता है। 3000 ई. पूर्व तथा 1500 ई. पूर्व के बीच सिंधु घाटी में एक उन्नत सभ्यता वर्तमान थी, जिसके अवशेष मोहन जोदड़ो (मुअन-जो-दाड़ो) और हड़प्पा में मिले हैं। विश्वास किया जाता है कि भारत में आर्यों का प्रवेश बाद में हुआ। आर्यों ने पाया कि इस देश में उनसे पूर्व के जो लोग निवास कर रहे थे, उनकी सभ्यता यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं तो किसी रीति से निकृष्ट भी नहीं थी। आर्यों से पूर्व के लोगों में सबसे बड़ा वर्ग द्रविड़ों का था।

मुख्य लेख : महाजनपद
प्राचीन भारतीयों ने कोई तिथि क्रमानुसार इतिहास नहीं सुरक्षित रखा है। सबसे प्राचीन सुनिश्चित तिथि जो हमें ज्ञात है, 326 ई. पू. है, जब मक़दूनिया के राजा सिकन्दर ने भारत पर आक्रमण किया। इस तिथि से पहले की घटनाओं का तारतम्य जोड़ कर तथा साहित्य में सुरक्षित ऐतिहासिक अनुश्रुतियों का उपयोग करके भारत का इतिहास सातवीं शताब्दी ई. पू. तक पहुँच जाता है। इस काल में भारत क़ाबुल की घाटी से लेकर गोदावरी तक षोडश जनपदों में विभाजित था।

मुख्य लेख : प्राचीन भारत
1200 ई.पू से 240 ई. तक का भारतीय इतिहास, प्राचीन भारत का इतिहास कहलाता है। इसके बाद के भारत को मध्यकालीन भारत कहते हैं जिसमें मुख्यतः मुस्लिम शासकों का प्रभुत्व रहा था।

मौर्य और शुंग
मुख्य लेख : मौर्य काल, मौर्य साम्राज्य एवं शुंग
अशोक, अशोक के शिलालेख, बुद्ध, बौद्ध दर्शन, बौद्ध धर्म, फ़ाह्यान, पाटलिपुत्र एवं तक्षशिला
शक, कुषाण और सातवाहन

शक साम्राज्य एवं कुषाण साम्राज्य

राबाटक लेख, कुषाण, कनिष्क, कम्बोजिका एवं कल्हण
गुप्त

मुख्य लेख : गुप्त साम्राज्य

मुख्य लेख : मध्यकालीन भारत
तीन साम्राज्यों का युग (8वीं - 10वीं शताब्दी)

सात सौ पचास और एक हज़ार ईस्वी के बीच उत्तर तथा दक्षिण भारत में कई शक्तिशाली साम्राज्यों का उदय हुआ। नौंवीं शताब्दी तक पूर्वी और उत्तरी भारत में पाल साम्राज्य तथा दसवीं शताब्दी तक पश्चिमी तथा उत्तरी भारत में प्रतिहार साम्राज्य शक्तिशाली बने रहे। राष्ट्रकूटों का प्रभाव दक्कन में तो था ही, कई बार उन्होंने उत्तरी और दक्षिण भारत में भी अपना प्रभुत्व क़ायम किया। यद्यपि ये तीनों साम्राज्य आपस में लड़ते रहते थे तथापि इन्होंने एक बड़े भू-भाग में स्थिरता क़ायम रखी और साहित्य तथा कलाओं को प्रोत्साहित किया।

पाल साम्राज्य, राष्ट्रकूट साम्राज्य, पृथ्वीराज चौहान, गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य, राजपूत काल एवं चोल साम्राज्य
इस्लाम का प्रवेश

मुख्य लेख : इस्लाम धर्म
इस बीच 712 ई. में भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। मुहम्मद-इब्न-क़ासिम के नेतृत्व में मुसलमान अरबों ने सिंध पर हमला कर दिया और वहाँ के ब्राह्मण राजा दाहिर को हरा दिया। इस तरह भारत की भूमि पर पहली बार इस्लाम के पैर जम गये और बाद की शताब्दियों के हिन्दू राजा उसे फिर हटा नहीं सके। परन्तु सिंध पर अरबों का शासन वास्तव में निर्बल था और 1176 ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद ग़ोरी ने उसे आसानी से उखाड़ दिया। इससे पूर्व सुबुक्तगीन के नेतृत्व में मुसलमानों ने हमले करके पंजाब छीन लिया था और ग़ज़नी के सुल्तान महमूद ने 997 से 1030 ई. के बीच भारत पर सत्रह हमले किये और हिन्दू राजाओं की शक्ति कुचल डाली, फिर भी हिन्दू राजाओं ने मुसलमानी आक्रमण का जिस अनवरत रीति से प्रबल विरोध किया, उसका महत्त्व कम करके नहीं आंकना चाहिए।

चंगेज़ ख़ाँ, महमूद ग़ज़नवी, मुहम्मद बिन क़ासिम, मुहम्मद ग़ोरी, ग़ोर के सुल्तान, चंदबरदाई, पृथ्वीराज रासो एवं क़ुतुबुद्दीन ऐबक
आर्थिक सामाजिक जीवन, शिक्षा तथा धर्म 800 ई. से 1200 ई.

मुख्य लेख : भारत की संस्कृति

इस काल में भारतीय समाज में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इनमें से एक यह था कि विशिष्ट वर्ग के लोगों की शक्ति बहुत बढ़ी जिन्हें 'सामंत', 'रानक' अथवा 'रौत्त' (राजपूत) आदि पुकारा जाता था। इस काल में भारतीय दस्तकारी तथा खनन कार्य उच्च स्तर का बना रहा तथा कृषि भी उन्नतिशील रही। भारत आने वाले कई अरब यात्रियों ने यहाँ की ज़मीन की उर्वरता और भारतीय किसानों की कुशलता की चर्चा की है। पहले से चली आ रही वर्ण व्यवस्था इस युग में भी क़ायम रही। स्मृतियों के लेखकों ने ब्राह्मणों के विशेषाधिकारों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर तो कहा ही, शूद्रों की सामाजिक और धार्मिक अयोग्यता को उचित ठहराने में तो वे पिछले लेखकों से कहीं आगे निकल गए।

दिल्ली सल्तनत

मुख्य लेख : दिल्ली सल्तनत
दिल्ली सल्तनत की स्थापना भारतीय इतिहास में युगान्तकारी घटना है। शासन का यह नवीन स्वरूप भारत की पूर्ववर्ती राजव्यवस्थाओं से भिन्न था। इस काल के शासक एवं उनकी प्रशासनिक व्यवस्था एक ऐसे धर्म पर आधारित थी, जो कि साधारण धर्म से भिन्न था। शासकों द्वारा सत्ता के अभूतपूर्व केन्द्रीकरण और कृषक वर्ग के शोषण का भारतीय इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता है। दिल्ली सल्तनत का काल 1206 ई. से प्रारम्भ होकर 1562 ई. तक रहा। 320 वर्षों के इस लम्बे काल में भारत में मुस्लिमों का शासन व्याप्त रहा। यह काल स्थापत्य एवं वास्तुकला के लिये भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश

मुख्य लेख : ग़ुलाम वंश
ग़ुलाम वंश दिल्ली में कुतुबद्दीन ऐबक द्वारा 1206 ई. में स्थापित किया गया था। यह वंश 1290 ई. तक शासन करता रहा। इसका नाम ग़ुलाम वंश इस कारण पड़ा कि इसका संस्थापक और उसके इल्तुतमिश और बलबन जैसे महान उत्तराधिकारी प्रारम्भ में ग़ुलाम अथवा दास थे और बाद में वे दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने में समर्थ हुए।

इल्तुतमिश/अल्तमश

मुख्य लेख : इल्तुतमिश
इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक प्रमुख शासक था। वंश के संस्थापक ऐबक के बाद वो उन शासकों में से था जिससे दिल्ली सल्तनत की नींव मज़बूत हुई। वह ऐबक का दामाद भी था।

रज़िया सुल्तान

मुख्य लेख : रज़िया सुल्तान
रज़िया का पूरा नाम-रज़िया अल्-दीन (1205 – 1240), सुल्तान जलालत उद-दीन रज़िया था। वह इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी।

बलबन का युग

मुख्य लेख : ग़यासुद्दीन बलबन
ग़यासुद्दीन बलबन (1266-1286 ई.) इल्बारि जाति का व्यक्ति था, जिसने एक नये राजवंश ‘बलबनी वंश’ की स्थापना की थी। ग़यासुद्दीन बलबन ग़ुलाम वंश का नवाँ सुल्तान था।

ख़िलजी वंश (1290-1320 ई.)

मुख्य लेख : ख़िलजी वंश
ख़िलजी कौन थे? इस विषय में पर्याप्त विवाद है। इतिहासकार 'निज़ामुद्दीन अहमद' ने ख़िलजी को चंगेज़ ख़ाँ का दामाद और कुलीन ख़ाँ का वंशज, 'बरनी' ने उसे तुर्कों से अलग एवं 'फ़खरुद्दीन' ने ख़िलजियों को तुर्कों की 64 जातियों में से एक बताया है। फ़खरुद्दीन के मत का अधिकांश विद्वानों ने समर्थन किया है। चूंकि भारत आने से पूर्व ही यह जाति अफ़ग़ानिस्तान के हेलमन्द नदी के तटीय क्षेत्रों के उन भागों में रहती थी, जिसे ख़िलजी के नाम से जाना जाता था। सम्भवतः इसीलिए इस जाति को ख़िलजी कहा गया। मामलूक अथवा ग़ुलाम वंश के अन्तिम सुल्तान शमसुद्दीन क्यूमर्स की हत्या के बाद ही जलालुद्दीन फ़िरोज ख़िलजी सिंहासन पर बैठा था, इसलिए इतिहास में ख़िलजी वंश की स्थापना को ख़िलजी क्रांति के नाम से भी जाना जाता है।

तुग़लक़ वंश (1320-1414)

मुख्य लेख : तुग़लक़ वंश
ग़यासुद्दीन ने एक नये वंश अर्थात तुग़लक़ वंश की स्थापना की, जिसने 1412 तक राज किया। इस वंश में तीन योग्य शासक हुए। ग़यासुद्दीन, उसका पुत्र मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1324-51) और उसका उत्तराधिकारी फ़िरोज शाह तुग़लक़ (1351-87)।

सैयद वंश, लोदी वंश, तैमूर लंग, विजय नगर साम्राज्य, बहमनी वंश, चंगेज़ ख़ाँ, अलाउद्दीन ख़िलजी, कबीर एवं भक्ति आन्दोलन
मुग़ल
मुख्य लेख : मुग़ल काल
दिल्ली की सल्तनत वास्तव में कमज़ोर थी, क्योंकि सुल्तानों ने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने का कोई प्रयास नहीं किया। वे धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त कट्टर थे और उन्होंने बलपूर्वक हिन्दुओं को मुसलमान बनाने का प्रयास किया। इससे हिन्दू प्रजा उनसे कोई सहानुभूति नहीं रखती थी। इसक फलस्वरूप 1526 ई. में बाबर ने आसानी से दिल्ली की सल्तनत को उखाड़ फैंका। उसने पानीपत की पहली लड़ाई में अन्तिम सुल्तान इब्राहीम लोदी को हरा दिया और मुग़ल वंश की प्रतिष्ठित किया, जिसने 1526 से 1858 ई. तक भारत पर शासन किया। तीसरा मुग़ल बादशाह अकबर असाधारण रूप से योग्य और दूरदर्शी शासक था। उसने अपनी विजित हिन्दू प्रजा का हृदय जीतने की कोशिश की और विशेष रूप से युद्ध प्रिय राजपूत राजाओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया।

बाबर (1526-1530)

मुख्य लेख : बाबर
मुग़ल वंश का संस्थापक "ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर" था। बाबर का पिता 'उमर शेख़ मिर्ज़ा', 'फ़रग़ना' का शासक था, जिसकी मृत्यु के बाद बाबर राज्य का वास्तविक अधिकारी बना।

हुमायूँ (1530-1540 और 1555-1556)

मुख्य लेख : हुमायूँ
'नासिरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ' का जन्म बाबर की पत्नी ‘माहम बेगम’ के गर्भ से 6 मार्च, 1508 ई. को काबुल में हुआ था। बाबर के 4 पुत्रों- हुमायूँ, कामरान, अस्करी और हिन्दाल में हुमायूँ सबसे बड़ा था। बाबर ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।

शेरशाह सूरी

मुख्य लेख : शेरशाह सूरी
शेरशाह सूरी के बचपन का नाम 'फ़रीद ख़ाँ' था। वह वैजवाड़ा (होशियारपुर 1472 ई.) में अपने पिता 'हसन ख़ाँ' की अफ़ग़ान पत्‍नी से उत्पन्न था। उसका पिता हसन, बिहार के सासाराम का ज़मींदार था।

अकबर (1556 - 1605)

मुख्य लेख : अकबर
अकबर महान ने धार्मिक सहिष्णुता तथा मेल-मिलाप की नीति बरती, हिन्दुओं पर से जज़िया उठा लिया और राज्य के ऊँचे पदों पर बिना भेदभाव के सिर्फ़ योग्यता के आधार पर नियुक्तियाँ कीं।

अकबरनामा, अबुल फ़ज़ल, तानसेन, बीरबल, रहीम एवं टोडरमल
जहाँगीर (1605 - 1627)

मुख्य लेख : जहाँगीर
'नूरुद्दीन सलीम जहाँगीर' का जन्म फ़तेहपुर सीकरी में स्थित ‘शेख़ सलीम चिश्ती’ की कुटिया में राजा भारमल की बेटी ‘मरीयम-उज़्-ज़मानी’ के गर्भ से 30 अगस्त, 1569 ई. को हुआ था। अकबर सलीम को ‘शेख़ू बाबा’ कहा करता था। सलीम का मुख्य शिक्षक अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना था।

शाहजहाँ (1627 - 1658)

मुख्य लेख : शाहजहाँ
शाहजहाँ का जन्म जोधपुर के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री 'जगत गोसाई' (जोधाबाई) के गर्भ से 5 जनवरी, 1592 ई. को लाहौर में हुआ था। उसका बचपन का नाम ख़ुर्रम था। ख़ुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था।

औरंगज़ेब (1658 - 1707)
मुख्य लेख : औरंगज़ेब
'मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब' का जन्म 4 नवम्बर, 1618 ई. में गुजरात के ‘दोहद’ नामक स्थान पर मुमताज़ के गर्भ से हुआ था। औरंगज़ेब के बचपन का अधिकांश समय नूरजहाँ के पास बीता था।

बहादुर शाह ज़फ़र (1837- 1858)

मुख्य लेख : बहादुर शाह ज़फ़र
बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर सन् 1775 ई. को दिल्ली में हुआ था। बहादुर शाह ज़फ़र मुग़ल साम्राज्य के अंतिम बादशाह थे। इनका शासनकाल 1837-58 तक था। बहादुर शाह ज़फ़र एक कवि, संगीतकार व खुशनवीस थे और राजनीतिक नेता के बजाय सौंदर्यानुरागी व्यक्ति अधिक थे।

हेमू, ताजमहल, फ़तेहपुर सीकरी एवं चित्रकला मुग़ल शैली
आधुनिक काल
मराठा

मुख्य लेख : मराठा साम्राज्य
राजपूतों और मुग़लों के योग से उसने अपना साम्राज्य कन्दहार से आसाम की सीमा तक तथा हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में अहमदनगर तक विस्तृत कर दिया। उसके पुत्र जहाँगीर जहाँ पौत्र शाहजहाँ के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार जारी रहा। शाहजहाँ ने ताजमहल का निर्माण कराया, परन्तु कन्दहार उसके हाथ से निकल गया। अकबर के प्रपौत्र औरंगज़ेब के राज्यकाल में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार अपने चरम शिखर पर पहुँच गया और कुछ काल के लिए सारा भारत उसके अंतर्गत हो गया। परन्तु औरंगज़ेब ने जान-बूझकर अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नीति त्याग दी और हिन्दुओं को अपने विरुद्ध कर लिया। उसने हिन्दुस्तान का शासन सिर्फ़ मुसलमानों के हित में चलाने की कोशिश की और हिन्दुओं को ज़बर्दस्ती मुसलमान बनाने का असफल प्रयास किया। इससे राजपूताना, बुंदेलखण्ड तथा पंजाब के हिन्दू उसके विरुद्ध उठ खड़े हुए।

शिवाजी, तानाजी, अहिल्याबाई होल्कर, जाटों का इतिहास, वास्को द गामा, अंग्रेज़ एवं सिपाही क्रांति 1857
ईस्ट इंडिया कम्पनी

मुख्य लेख : ईस्ट इंडिया कम्पनी
अठारहवीं शताब्दी के शुरू में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई) तथा कलकत्ता (कोलकाता) पर क़ब्ज़ा कर लिया। उधर फ्राँसीसियों की ईस्ट इंडिया कम्पनी ने माहे, पांडिचेरी तथा चंद्रानगर पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन्हें अपनी सेनाओं में भारतीय सिपाहियों को भरती करने की भी इजाज़त मिल गयी। वे इन भारतीय सिपाहियों का उपयोग न केवल अपनी आपसी लड़ाइयों में करते थे बल्कि इस देश के राजाओं के विरुद्ध भी करते थे। इन राजाओं की आपसी प्रतिद्वन्द्विता और कमज़ोरी ने इनकी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को जाग्रत कर दिया और उन्होंने कुछ देशी राजाओं के विरुद्ध दूसरे देशी राजाओं से संधियाँ कर लीं। 1744-49 ई. में मुग़ल बादशाह की प्रभुसत्ता की पूर्ण उपेक्षा करके उन्होंने आपस में कर्नाटक की दूसरी लड़ाई छेड़ी।

मैसूर युद्ध, टीपू सुल्तान, पानीपत युद्ध, रेग्युलेटिंग एक्ट एवं गवर्नर-जनरल
गवर्नर-जनरलों का समय

मुख्य लेख : गवर्नर-जनरल
कम्पनी के शासन काल में भारत का प्रशासन एक के बाद एक बाईस गवर्नर-जनरलों के हाथों में रहा। इस काल के भारतीय इतिहास की सबसे उल्लेखनीय घटना यह है कि कम्पनी युद्ध तथा कूटनीति के द्वारा भारत में अपने साम्राज्य का उत्तरोत्तर विस्तार करती रही। मैसूर के साथ चार लड़ाइयाँ, मराठों के साथ तीन, बर्मा (म्यांमार) तथा सिखों के साथ दो-दो लड़ाइयाँ तथा सिंध के अमीरों, गोरखों तथा अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक-एक लड़ाई छेड़ी गयी। इनमें से प्रत्येक लड़ाई में कम्पनी को एक या दूसरे देशी राजा की मदद मिली।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम


मुख्य लेख : प्रथम स्वतंत्रता संग्राम
इस काल में सती प्रथा का अन्त कर देने के समान कुछ सामाजिक सुधार के भी कार्य किये गये। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बैंटिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सका। अंग्रेज़ी के माध्यम से पश्चिम शिक्षा के प्रसार की दिशा में क़दम उठाये गये, अंग्रेज़ी देश की राजभाषा बना दी गयी, सारे देश में समान ज़ाब्ता दीवानी और ज़ाब्ता फ़ौजदारी क़ानून लागू कर दिया गया, परन्तु शासन स्वेच्छाचारी बना रहा और वह पूरी तरह अंग्रेज़ों के हाथों में रहा।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, राजा राममोहन राय, सती प्रथा एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
असहयोग और सत्याग्रह

मुख्य लेख : असहयोग आंदोलन
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कुछ सुधारों से पुराने कांग्रेसजन संतुष्ट हो गये, परन्तु नव युवकों का दल, जिसे मोहनदास करमचंद गाँधी के रूप में एक नया नेता मिल गया था, संतुष्ट नहीं हुआ। इन सुधारों के अंतर्गत केन्द्रीय कार्यपालिका को केन्द्रीय विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं बनाया गया था और वाइसराय को बहुत अधिक अधिकार प्रदान कर दिये गये थे। अतएव उसने इन सुधारों को अस्वीकृत कर दिया। उसके मन में जो आशंकाएँ थीं, वे ग़लत नहीं थी, यह 1919 के एक्ट के बाद ही पास किये गये रौलट एक्ट जैसे दमनकारी क़ानूनों तथा जलियाँवाला बाग़ हत्याकांण्ड जैसे दमनमूलक कार्यों से सिद्ध हो गया। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक में ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ चला दीं। जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे महान क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। कांग्रेस ने 1920 ई. में अपने नागपुर अधिवेशन में अपना ध्येय पूर्ण स्वराज्य की स्थापना घोषित कर दी और अपनी माँगों को मनवाने के लिए उसने अहिंसक असहयोंग की नीति अपनायी। चूंकि ब्रिटिश सरकार ने उसकी माँगें स्वीकार नहीं की और दमनकारी नीति के द्वारा वह असहयोग आंदोलन को दबा देने में सफल हो गयी। इसलिए कांग्रेस ने दिसम्बर 1929 ई. में लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वीधीनता निश्चित किया और अपनी माँग का मनवाने के लिए उसने 1930 में नमक सत्याग्रह आंदोलन शुरू कर दिया।

भारत का विभाजन

मुख्य लेख : भारत का विभाजन
कुछ ब्रिटिश अफ़सरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और मुसलमानों के लिये भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय लॉर्ड वेवेल अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है। जिसका नियंत्रण मुख्य रूप से अंग्रेजों के हाथों में हो। अतएव सितम्बर 1946 ई. में लॉर्ड वेवेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुस्लिम लीग के दिमाग़ काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।

Saturday, 27 May 2017

भारत के गाँव

आज हममें से कितने लोगों ने गाँव देखे हैं? गाँव जिन्हें भगवान ने बनाया, जहाँ प्रकृति का सौन्दर्य बिखरा पड़ा है- हरे भरे खेत, कल कल करती नदियाँ, कुँयें की रहट पर सजी धजी औरतों की खिलखिलाहट, हुक्का पीते किसान, गाय के पीछे दौड़ते बच्चे, पेड़ों से आम तोड़कर खट्टे आम खाती किशोरियाँ, तितलियाँ पकड़ते किशोरन बाजरा और मक्की की रोटी, दूध दही, मक्खन और घी की बहुलता यह सब कल्पना में आता है जब हम गाँव की बात करते हैं।

भारत के गाँव उन्नत और समृद्ध थे। ग्रामीण कृषक कृषि पर गर्व अनुभव करते थे, संतुष्ट थे। गाँवों में कुटीर उद्योग फलते फूलते थे। लोग सुखी थे। भारत के गाँवों में स्वर्ग बसता था। किन्तु समय बीतने के साथ नगरों का विकास होता गया और गाँव पिछड़ते गये।

भारत के गाँवों की दशा अब दयनीय है। इसका मुख्य कारण अशिक्षा है। अशिक्षित होने के कारण ग्रामीण अत्यधिक आस्तिक, रूढ़िवादी और पौराणिक विचारधारा के हैं। गाँवों में साहूकारों, जमींदारों और व्यापारियों का अनावश्यक दबदबा है। किसान प्रकृति पर निर्भर करते हैं और सदैव सूखा तथा बाढ़ की चपेट में आकर नुकसान उठाते हैं। कर्जों में फंसे, तंगी में जीते, छोटे छोटे झगड़ों को निपटाने के लिए कचहरी के चक्कर लगाते हुए ये अपना जीवन बिता देते हैं।

गाँव में कृषि कार्य पर पूरी तरह निर्भरता अब पूरे परिवार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाती। जनसंख्या के निरंतर विकास से खेत छोटे छोटे हो रहे हैं। अतः कृषि के आधुनिक साधन प्रयोग नहीं हो पाते। संक्षेप में गाँववासी अब नगरों की चकाचौंध से प्रभावित हैं। युवा अब गाँव में नहीं रहना चाहता। वह शिक्षा, नौकरी और सुख सुविधाओं का पीछा करते हुए नगर पहुँचता है।

सरकार गाँवों के विकास के लिये प्रयत्न कर रही है। गाँवों में बिजली, पानी, शिक्षा और इलाज के लिए सभी सुविधायें जुटा रही है। बैंक इत्यादि गाँवों की उन्नति में अपना पूर्ण सहयोग दे रही हैं।
भारत गाँवों का देश है। भारत की अधिकतम जनता गाँवों में निवास करती हैं। वास्तविक भारत का दर्शन गाँवों में ही सम्भव है जहाँ भारत की आत्मा बसी हुई है।

सबसे पवित्र मास होता है सावन, काशी विश्वनाथ के दर्शन करने से मिलता है मोक्ष

बोल बम के जयघोष के साथ सभी भक्त मां गंगा में स्नान करके जलकलश भरकर बाबा भोलेनाथ को अर्पण करते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं. काशी के का...